मैं, 
सूरज को अपनी मुट्ठी में कैद
कर लेने की चाहत में
छोड़ देता हूँ घर
उस वक्त 
जब सूरज कर रहा होता है
जद्दोजहद 
क्षितिज पर बाहर निकल आने की
मेरी,
अपनी मुट्ठी में
उंगलियों के बीच 
बहुत जगह होती हैं जहाँ से
मेरे हिस्से का सूरज 
फिसल जाता है अक्सर मेरी पकड़ से 
और अंधेरा फिर काबिज हो जाता है 
जहाँ, मैने बसाया था रोशनी को
रोशनी,
दिनभर ढूंढती हैं
पेडों के बीच पसरी छांव / 
चुल्लु भर पानी की ठंड़क / 
मुट्ठी भर गुड़-चने की आस /
फिर थक-हार 
चुहचुहाने लगती है पेशानी पर 
और बदलकर पसीने में
समा जाती है धरती में 
सूरज,
जब ठहरता है मुट्ठी में 
थोड़ी देर को भी तो गदेलियों पर 
उभरने लगते हैं छाले
जिनमें भरे होते है पिघले हुये ख्वाब
जो रात चांद का मरहम जमा देगा
और बदल देगा 
उंगलियों के बीच की खाली जगह में
जहाँ से, अक्सर
फिसल जाता है कैद में आया
सूरज  
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-फरवरी-२००९ / समय : ११:०० रात्रि / घर
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3 टिप्पणियाँ
बहुत सुन्दर...
9 फ़रवरी 2009 को 11:36 pm बजे---
गुलाबी कोंपलें
बहुत सुंदर है ये तो...वाह!
10 फ़रवरी 2009 को 4:26 am बजेबहुत खूब!
10 फ़रवरी 2009 को 10:33 am बजेएक टिप्पणी भेजें