खिड़कियों से, बाहर झाँकते हुए
तुम कभी भी नही देख पाओगे
दुनिया कैसी है
तुम्हारी किताबों से कितनी अलग
जिस जमीन पर वह घर है
खिड़कियों वाला
वो भी उसी दुनियाँ में हैं
जिसे तुम अपने ड्राईंगरूम में
कार्नर टॅबल पर पाते हो
तो तुम शायद
नही पहचान पाते हवा को भी
तलाशते किसी आकार में उसे
फिर सहम के बैठ जाते कि
कैसे ले पाओगे साँस
हवा होती ही नही है
किताबें इतना सिखा देती हैं जरूर
विलीन होने लगती हैं दीवारों में
उसके बाद ही
तमाम दुनियाँ पसरी होती है इर्द-गिर्द
लेकिन तुम्हारी किताबों
सिखाती हैं तुम्हें क्षितिज का होना
तुम्हारे और आसमान के छोर पर
तुम ने नही देखा है
खुला आसमान कभी
और नही देखा है
आदमी की आशाओं को उड़ते पतंग की तरह
खिड़कियाँ तो बस
तुम्हें सिखा देती हैं जड़ रहना
और खुद को समेटे रहना चहर दीवारी में
जितनी लगती है
खिड़की से बाहर
आँखों का अपना विज्ञान है
और वो देख ही लेती हैं
किसी भी अंधेरे में
जितना देखना चाहती हैं
लेकिन खिड़कियाँ तय करती हैं कि
आँखों को कितना देखना है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०१-अगस्त-२०११ / समय : १२:०० रात्रि / घर
तुम कभी भी नही देख पाओगे
दुनिया कैसी है
तुम्हारी किताबों से कितनी अलग
जिस जमीन पर वह घर है
खिड़कियों वाला
वो भी उसी दुनियाँ में हैं
जिसे तुम अपने ड्राईंगरूम में
कार्नर टॅबल पर पाते हो
खिड़कियाँ,
यदि न बनाई गई होती तो तुम शायद
नही पहचान पाते हवा को भी
तलाशते किसी आकार में उसे
फिर सहम के बैठ जाते कि
कैसे ले पाओगे साँस
हवा होती ही नही है
किताबें इतना सिखा देती हैं जरूर
ढाई बाय चार फिट के बाद
जहाँ खिड़कियाँ विलीन होने लगती हैं दीवारों में
उसके बाद ही
तमाम दुनियाँ पसरी होती है इर्द-गिर्द
लेकिन तुम्हारी किताबों
सिखाती हैं तुम्हें क्षितिज का होना
तुम्हारे और आसमान के छोर पर
तुम ने नही देखा है
खुला आसमान कभी
और नही देखा है
आदमी की आशाओं को उड़ते पतंग की तरह
खिड़कियाँ तो बस
तुम्हें सिखा देती हैं जड़ रहना
और खुद को समेटे रहना चहर दीवारी में
रात,
उतनी अंधेरी नही है जितनी लगती है
खिड़की से बाहर
आँखों का अपना विज्ञान है
और वो देख ही लेती हैं
किसी भी अंधेरे में
जितना देखना चाहती हैं
लेकिन खिड़कियाँ तय करती हैं कि
आँखों को कितना देखना है
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०१-अगस्त-२०११ / समय : १२:०० रात्रि / घर
10 टिप्पणियाँ
गहन विचार आत्मक बढ़िया प्रस्तुति ...
18 अक्तूबर 2011 को 5:58 pm बजेलेकिन खिड़कियाँ तय करती हैं कि
18 अक्तूबर 2011 को 6:46 pm बजेआँखों को कितना देखना है
और फिर खिड़कियों का आकार प्रकार तय करने वाले और कोई हो तो ...
मुकेश जी इस बेजोड़ रचना के लिए हार्दिक बधाई
18 अक्तूबर 2011 को 7:38 pm बजेआँखों का अपना विज्ञान है
18 अक्तूबर 2011 को 8:39 pm बजेऔर वो देख ही लेती हैं
किसी भी अंधेरे में
जितना देखना चाहती हैं
लेकिन खिड़कियाँ तय करती हैं कि
आँखों को कितना देखना है
....बहुत गहन चिंतन..भावनाओं की बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
खिड़कियों से दिखता विश्व एक संकेत देता है बाहर की वास्तविकता का।
18 अक्तूबर 2011 को 9:39 pm बजेकितना कुछ दिख गया इस खिड़की से। वाह!
19 अक्तूबर 2011 को 7:23 am बजेखिड़कियों के मध्यम से गहन अभिव्यक्ति ...
19 अक्तूबर 2011 को 11:34 am बजेगहन चिंतन!
19 अक्तूबर 2011 को 6:58 pm बजेGAHARI SOCH LIYE HUE AAPKI RACHANA DIL KO CHHOO GAYI
19 अक्तूबर 2011 को 8:21 pm बजेThanks to all for your valued feedback and appreciation.
24 मार्च 2012 को 9:33 am बजेRegards,
Mukesh Kumar Tiwari
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