जो,
आवाजें
तुम्हें सुनाय़ी दे रही
उन्हें सुनते रहना या
बर्दाश्त कर पाना
तुम्हारे बस में नही है
न चाह के भी देख रहे हो
बरबस
जैसे इन्द्रियों ने
खुद हथिया लिये हो
सारे नियंत्रण
हाथ से ढांप लेने /
उंगलियाँ डाल लेने से
कुछ नही होगा
यह आवाजें तब भी आयेंगी
तुम
अपने कानों में
भर लो पिघला सीसा
(यह मुफ्त मिल रहा है आजकल)
तब न आवाजें आयेंगी
न ही हाथ उलझे रहेंगे
आवाजों से लड़ते
रखी जा सकती हैं
लेकिन ता-उम्र नही
गांधारी प्रतिज्ञ होने के बावजूद भी
नही छोड़ पायी थी लोभ
एक दृष्टी देखने का
इसलिए
यदि बचना चाहते हो
आँख-मिचौनी से तो
फोड़ लो आँखें अपनी
(कई मॉल्स में कान के साथ आँखों का पॅकेज मुफ्त मिल रहा है)
इसके,
बाद तुम किसी भी दिशा में जाओ
तुम महसूस करोगे
लोगों से टकराते /
या उनकी साँसों के स्पर्श को
लेकिन,
कोई बैचेनी
न तुम्हारे अंतर होगी
ना आँखों में
और न ही कान में
और,
यह जो भी है.......हुजूम
तुम्हारे साथ ही बना रहेगा
कयामत तक
बिगुल तुम्हारे कानों में
या जिनके बाप ने
तुम्हें दिखाये थे रंगीन सपने
कान और आँखें
अब केवल
उनके वंशजों के पास ही होंगे
और वो ही तुम्हें हाँकेगें
कभी जयकारों के लिए
तो कभी वोटों के लिए
-----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-जुलाई-2011 / समय : 11:40 रात्रि / घर (वायरल फीवर की चपेट में बिस्तर पर)
आवाजें
तुम्हें सुनाय़ी दे रही
उन्हें सुनते रहना या
बर्दाश्त कर पाना
तुम्हारे बस में नही है
तुम,
बहुतकुछ न चाह के भी देख रहे हो
बरबस
जैसे इन्द्रियों ने
खुद हथिया लिये हो
सारे नियंत्रण
अपने
कानों को हाथ से ढांप लेने /
उंगलियाँ डाल लेने से
कुछ नही होगा
यह आवाजें तब भी आयेंगी
तुम
अपने कानों में
भर लो पिघला सीसा
(यह मुफ्त मिल रहा है आजकल)
तब न आवाजें आयेंगी
न ही हाथ उलझे रहेंगे
आवाजों से लड़ते
आँखें,
कुछ देर तो बंद रखी जा सकती हैं
लेकिन ता-उम्र नही
गांधारी प्रतिज्ञ होने के बावजूद भी
नही छोड़ पायी थी लोभ
एक दृष्टी देखने का
इसलिए
यदि बचना चाहते हो
आँख-मिचौनी से तो
फोड़ लो आँखें अपनी
(कई मॉल्स में कान के साथ आँखों का पॅकेज मुफ्त मिल रहा है)
इसके,
बाद तुम किसी भी दिशा में जाओ
तुम महसूस करोगे
लोगों से टकराते /
या उनकी साँसों के स्पर्श को
लेकिन,
कोई बैचेनी
न तुम्हारे अंतर होगी
ना आँखों में
और न ही कान में
और,
यह जो भी है.......हुजूम
तुम्हारे साथ ही बना रहेगा
कयामत तक
जिनके,
दादाओं ने कभी फूंका था बिगुल तुम्हारे कानों में
या जिनके बाप ने
तुम्हें दिखाये थे रंगीन सपने
कान और आँखें
अब केवल
उनके वंशजों के पास ही होंगे
और वो ही तुम्हें हाँकेगें
कभी जयकारों के लिए
तो कभी वोटों के लिए
-----------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 25-जुलाई-2011 / समय : 11:40 रात्रि / घर (वायरल फीवर की चपेट में बिस्तर पर)
10 टिप्पणियाँ
Ek aah ke alawa kya kah saktee hun?
13 अगस्त 2011 को 11:37 pm बजेपूरे आधुनिक चिंतन से हो गए हो भाई साहब , हम आंखें फोड़ने की सलाह तो मान नहीं सकते लेकिन किसी की आंख का इलाज करना हो तो ज़रूर कर सकते हैं।
14 अगस्त 2011 को 12:11 am बजेतन की ऊष्णता ने मन को झकझोर दिया। बहुत ही अच्छी।
14 अगस्त 2011 को 8:20 am बजेबहुत ही भावमय प्रस्तुति , दिल को छू लेने वाली , बधाई
14 अगस्त 2011 को 8:27 am बजेबहुत सुन्दर कवितायेँ... उद्वेलित करती
14 अगस्त 2011 को 11:50 am बजेआज 14 - 08 - 2011 को आपकी पोस्ट की चर्चा यहाँ भी है .....
14 अगस्त 2011 को 12:57 pm बजे...आज के कुछ खास चिट्ठे ...आपकी नज़र .तेताला पर
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बेहतरीन रचना आज के सच को बयाँ करती हुई।
14 अगस्त 2011 को 1:18 pm बजेsach me is bhrashtachaar ki durgandh me aise hi aahwan ki jarurat hai.
14 अगस्त 2011 को 1:30 pm बजेacchhi prabhavshali rachna.
झकझोरने वाली रचना ...अच्छी प्रस्तुति
14 अगस्त 2011 को 3:20 pm बजेगहन सोच और यथार्थ की प्रस्तुति
14 अगस्त 2011 को 5:54 pm बजेएक टिप्पणी भेजें