जबसे,
प्रबंधन(मैनेजमेन्ट) सिद्धाँत नही
बल्कि किसी हथियार की तरह इस्तेमाल होने लगा है
और, आदमी ने सीखा
आऊटसोर्स/ऑफलोड़ करना और
खुदको मुक्त कर लेना
अपने कर्तव्यों से
तबसे,
आदमी! आदमी नही रहा
जब,
उसने सीखा था पढ़ना लिखना
तबसे,
आदमी नही रहा जंगली
जो अपनी सीमाओं का विस्तार करता था
अदम्य साहस के सहारे
और बदलकर रख देता था
जो भी चाहता था
अब,
आदमी अपने अधिकारों को बिजूकों में बदल
चौराहों पर खड़ा करता है
हक के लिये लड़ने
और खुद सो जाता है
दुबुक कर
अब,
आदमी को पसीना नही आता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 29-जनवरी-2011 / समय : 07:45 सायं / बाहा-ईवेंट से लौटते हुये
5 टिप्पणियाँ
बहुत सुन्दर शब्द रचना ।
8 फ़रवरी 2011 को 3:58 pm बजेइस अत्यंत प्रभावशाली रचना के लिए मेरी बधाई स्वीकार करें...
8 फ़रवरी 2011 को 4:09 pm बजेनीरज
बहुत सच कहा, जो ठीक से न करो, बाहर वालों को दे दो।
8 फ़रवरी 2011 को 6:47 pm बजेJinko paseena aabhee jata hai,wo kisko, kab dikhta hai?
8 फ़रवरी 2011 को 9:13 pm बजेअच्छी रचना मुकेश भाई..
9 फ़रवरी 2011 को 8:01 am बजेएक टिप्पणी भेजें