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इन्सान के करीब से गुजरते हुये

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

साँप,

यदि अब भी साँप की तरह ही होते
तो अब तक उग आते पँख उनके
और दादी की किस्सों की तरह उड़ने लगते
आसमान में

जब से,
परियाँ आसमान से
नही उतरी ज़मीन पर
और मेरे पास वक्त नही बचा
न दादी के लिये और न अपने लिये
साँप,
पहनने लगे हैं इन्सानी चेहरा
और बस्तियों में रहने लगे हैं
बड़ा खौफ बना रहता है
किसी इन्सान के करीब से गुजरते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १७-जुलाई-२०१० / समय : ०५:४५ सुबह / घर

7 टिप्पणियाँ

समयचक्र ने कहा…

bahut sundar prastuti...har galee men rahane lage hain ...badhai badhiya rachana...

20 जुलाई 2010 को 8:35 pm बजे

सीधे शब्दों में गहरी बात कह गये आप।

20 जुलाई 2010 को 9:15 pm बजे
Smart Indian ने कहा…

प्रवीन जी से सहमत; सुन्दर, सरल रचना!

21 जुलाई 2010 को 8:29 am बजे

"बड़ा खौफ बना रहता है
किसी इन्सान के करीब से गुजरते हुये"

सहज, सरल, सटीक...

21 जुलाई 2010 को 9:08 am बजे
ओम आर्य ने कहा…

क्या करें मुकेश जी....और क्या कहें!!!
बात तो सोलह आने सच है.

21 जुलाई 2010 को 10:00 pm बजे

बहुत खूब .. आज के यथार्थ को शब्दों का जामा पहना दिया है आपने .... बेहद लाजवाब ...

25 जुलाई 2010 को 7:53 pm बजे
मोना परसाई ने कहा…

जब परियों ,कल्पनाओं ,किस्से -कहानियों के दिन दूर चले जाते है .तब इंसानी केंचुल लपेटे सांप अधिक डराने लगते है .बहुत अच्छी कविता .

29 जुलाई 2010 को 11:22 am बजे