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नजदीकियों के चाक पर

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

तुम,
जब मेरे कंधे पर रखते हो
अपना हाथ
तो, मैं महसूस करता हूँ
कि कोई दबा देना चाहता है
मेरा हर वो हिस्सा
जो तलाश लेता है अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम
बिना झुके हुये
और दे देना चाहता है
अपनी पसंद का आकार मुझे
नजदीकियों के चाक पर

तुम,
जब मुस्कुराते हुये
पूछते हो मुझसे मेरा हाल
तो, मैं मह्सूस करता हूँ
तुम्हारी मुस्कुराहटों को दिल के पार गुजरते हुये
जैसे कोई बाँट देना चाहता है
मुझे दो हिस्सों में
एक वो जिसे मैं ढो रहा हूँ
और, एक वो जिसे तुम खरीदना चाहते हो
अपनी मुस्कुरहाटों के मोल पर

तुम,
जब मुझस बातें करते हों
मेरी आँखों में आँखें डालकर
तो, मैं महसूस करता हूँ
कि कोई मुझसे ही छीन रहा है
मेरी निजता
और थोप रहा है अपने शब्दों को मेरे जे़हन में
कि वह नाच सकें
तुम्हारे ईशारों पर किसी कठपुतली की तरह
अपनी पहचान खोते हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०५-जुलाई-२०१० / समय : ०७:१० शाम / ऑफिस से लौटते

7 टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया रचना!

8 जुलाई 2010 को 8:31 pm बजे
kshama ने कहा…

Aise ehsaas waqayi bade dukhdayee hote hain...bahut samvedansheel rachana hai yah!

8 जुलाई 2010 को 8:31 pm बजे

जब कोई मुस्करा कर पूछे तो व्यक्तित्व दो भागों में बट जाता है । अनुभव सबका है पर अभिव्यक्ति आप से सुनी ।

9 जुलाई 2010 को 8:29 am बजे

Apni pahchan ko ankhon ke saamne mit jaane dena aasan nahi hota .. par kuch majbooriyaan ... ya doosron ka kad khud ko mita deta hai ...
gahre ehsaas liye rachna hai aaoki ...

10 जुलाई 2010 को 7:29 pm बजे
VIVEK VK JAIN ने कहा…