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कविता : कुछ रिश्तों के बहाने से

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

रिश्तों को,
जिन्दगी की इस हद्द के बाद
मैं समझने लगा हूँ कि
यहाँ अपना-पराया
कुछ नही होता है
यह केवल एक भ्रम है
और जिसमें
केवल मैं,
तुम
हम सभी घिरे हैं कमोबेश

केवल
सन्दर्भ बदलते हैं
वक्त के साथ
और हम तुम वहीं होते हैं
घिरे हुए
और कुछ नही बदलता है यहाँ
अलबत्ता
कुछ देर मैं तुम्हारी भूमिका निभा लेता हूँ
या तुम मेरी
लेकिन नियति ने
इससे ज्यादा नही छोड़ी है
गिरह अपनी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 12-दिसम्बर-2011 / समय : 10:53 रात्रि / घर

कविता : सीख लो आदमी को काटना

बुधवार, 23 नवंबर 2011



तुम,
यदि बचना चाहते हो और
बचे रहना भी सदियों तक तो
सीख लो आदमी को काटना
ड़र पैदा करों उसकी आँखों में
अपने लिए
कोई से ही नही जी पाता
उसके साथ

कभी देखा है?
भीमबेटका* की दीवारों पर
भित्तियों में दर्ज
जानवर,
अब
देखने को नही मिलते
मार
दिये.......सब
आदमी ने अपने साथ रखते हुए
(* भीमबेटका भोपाल (म.प्र.) के पास प्रागैतिहासिक गुफायें हैं जिनकी दीवारों पर कई भित्ती चित्र अंकित है)

आदमी,
सीखता
है बहुत कुछ
अपनी उम्र के साथ और बदलता है आदतों को
कभी धर्म के लिए
कभी शौक के लिए
कभी मौज के लिए
लेकिन हर बार केवल तुम ही मारे जाते है

आदमी,
केवल अकेला ही नही करता सबकुछ
बाँटता है तुम्हें कत्ल करने के बाद
जिग़र, भेजे, रान, टाँगों में खुद केलिए
और शेष
जिसे वो नही खाना चाहता
कर देता है तक्सीम यतीमों में
ये भी कुछ तुम्हारी ही तरह होते हैं
इन्सानी शक्लों में
इनके हिस्से में हरबार यही आता है

तुम्हारी,
खालों के लिए अर्थव्यवस्था ने खोल दिये हैं
नये रास्ते
और आदमी को लगता है
खाल तो दी जा सकती है दान
दुनिया के शेष यतीमों के लिए
वैसे भी वो
अब कपड़े नही पहनता है

जिन्दा,
बने रहने के लिए नही सीख पाये
काटना तो
खरीद लो कोई आदमी (बड़े सस्ते दामों में बिक जाता है)
और शामिल करलो
अपनी जमात में
और घूमने दो उसे आँगन में लेंडियाँ करते
मिमियाते
या फैला दो ख़बरें कि
तुम्हें खाने के बाद हो रही कोई बीमारी
(इंग्लैंड में गायों ने आजमाया था ये)

कुछ दिन और बचे रहोगे
अब आदमी अपने बाप की तस्वीर नही रखता घर में
तो तुम्हें क्या बचायेगा
यह जरूरी है कि
तुम सीख लो आदमी को काटना
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 14-ऑक्टोबर-2011 / समय : 11:33 रात्रि / घर
 

कविता : खिड़कियों की दुनिया से........

मंगलवार, 18 अक्टूबर 2011

खिड़कियों से, बाहर झाँकते हुए
तुम कभी भी नही देख पाओगे
दुनिया कैसी है
तुम्हारी किताबों से कितनी अलग
जिस जमीन पर वह घर है
खिड़कियों वाला
वो भी उसी दुनियाँ में हैं
जिसे तुम अपने ड्राईंगरूम में
कार्नर टॅबल पर पाते हो 

खिड़कियाँ,
यदि न बनाई गई होती
तो तुम शायद
नही पहचान पाते हवा को भी
तलाशते किसी आकार में उसे
फिर सहम के बैठ जाते कि
कैसे ले पाओगे साँस
हवा होती ही नही है
किताबें इतना सिखा देती हैं जरूर

ढाई बाय चार फिट के बाद
जहाँ खिड़कियाँ
विलीन होने लगती हैं दीवारों में
उसके बाद ही
तमाम दुनियाँ पसरी होती है इर्द-गिर्द
लेकिन तुम्हारी किताबों 
सिखाती हैं तुम्हें क्षितिज का होना
तुम्हारे और आसमान के छोर पर
तुम ने नही देखा है
खुला आसमान कभी
और नही देखा है
आदमी की आशाओं को उड़ते पतंग की तरह
खिड़कियाँ तो बस
तुम्हें सिखा देती हैं जड़ रहना
और खुद को समेटे रहना चहर दीवारी में

रा,
उतनी अंधेरी नही है
जितनी लगती है
खिड़की से बाहर
आँखों का अपना विज्ञान है
और वो देख ही लेती हैं
किसी भी अंधेरे में
जितना देखना चाहती हैं
लेकिन खिड़कियाँ तय करती हैं कि
आँखों को कितना देखना है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०१-अगस्त-२०११ / समय : १२:०० रात्रि / घर

कविता : कुछ मोहब्बत भरी बातें

सोमवार, 26 सितंबर 2011

आज चार दिन के प्रवास पर निकला हूँ और यह पहला ही दिन है और वो भी अभी पूरा नही हुआ है, कल सुबह से ही ट्रेनिंग क्लास और फिर न जाने क्या-क्या। लेकिन एक बात तो है, मैं तुम्हें मिस कर रहा हूँ...........इस वक्त भी


तुम्हें,
बड़ा अजीब सा लगता है
घर में यूँ ही सिमटे रहना
या समय काटने को
लेकर बैठ जाना
सिलाई / कढाई / चुनाई या बुनाई
अचार के लिये कैरियाँ काटते
या पापड़ के लिये आलू का मांड़ पकाते
तुम्हें लगता है
कोई रच रहा है साजिश
औरतों के खिलाफ

मैं,
नही चाहता कि
तुम किसी दिन भूल जाओ
अपना नाम भी
और गुमसुम बैठी रहो
ताकते शून्य में
भावशून्य चेहरे पर उभर आयें
आंसुओं की लकीरें

किसी,
प्रश्‍न के जवाब में
तुम्हें तलाशने हो शब्द
फिर थक-हार चुप बैठ जाना हो
या बड़ी देर बाद कुछ कहना हो धीमे से
और,
किसी प्रतिप्रश्‍न के जवाब में
सुबकते हुये थमी नज़रों से देखना हो

इसलिये,
सिर को झटककर
एक बार देखो मेरी ओर  
मुस्कुराओ
और झाडू उठाकर बुहारो
मेरा कमरा
फिर कमर में खोंसकर साड़ी
और चौखट से टिके हुये
कुछ बातें करों मुहब्बत भरी
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १७-मई-२००९ / समय : ११:२० रात्रि / घर

कविता : अण्णा, यह ठीक नही किया तुमने

शनिवार, 27 अगस्त 2011

शायद, तुम नही जगाते तो
हम जागते ही नही
नींद का खुमार अब भी बाकी है
हम जैसे स्वपन में जीने के आदी हो गये हैं
और हमारी दुनिया
जिसमें वो भी हैं
जो देते हैं नशा हमें ग़ाफिल करने के लिए

तुम नही बताते कि
जब आसमान में तारे नही होते तो
उसे दिन कहते हैं
शायद हम जान ही नही पाते कि
दिन होने का मतलब क्या है
बस रात में ही डूबे रहते
वादों का सुरमा लगाये अपनी आँखों में

तुम,
यदि नही बतलाते कि
ये टोपियाँ कितनी उजली हैं तो
शायद हम जिन्दगी यूँ ही गुजार देते
कभी टोपियाँ खरीदते ही नही
बस पहनते जाते
उन्हें देखते हुए

अण्णा,
यह ठीक नही किया तुमने
जगाके रख दिया
इस सोते देश को
कम-अज-कम सपने तो देख ही रह था
खुशहाली के
अब रोयगा कि पहले क्यों नही जागा
लेकिन,
तुम्हें इससे मिलेगा क्या?
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 22-अगस्त-2011 / समय : 11:56 रात्रि / घर