मैने,
जब शुरुआत की थी
यही कोई सोलह-सत्रह बरस का था
घर से निकला था पहली बार
और शामिल हुआ था
किसी शवयात्रा में
अपने हर कदम पर
जैसे मैं धंसा जा रहा था जमीन में
ना जाने क्यों मुझे उम्र से बडे होने का
अहसास दबाये जा रहा था
मैं ना गर्दन उठा पा रहा
ना नज़रे मिला
आवाज गले में रुंधी थी
सत्य बोलो गति है का दोहराव
मेरे अपने कानों तक नही सुना जा रहा था
धीरे-धीरे
मेरा कॉन्फ़िडेन्स बढा
और शर्म खत्म सी होने लगी थी
फ़िर भी बडा अटपटा सा तो लगता ही था
किसी शवयात्रा में शामिल होना
और जोर से दोहराते रहना
सत्य बोले गत्य है
हालांकि
अब भी राम नाम सत्य पुकार लेने का ख्याल
रूंओ को उठा देता था
फ़िर,
आदत सी हो आई थी
अब तक मैं सीख चुका था
कैसे खबर करनी है रिश्तेदारों को /
कैसे भाव लाना है चेहरे पर /
कहां मिलता है सामान /
कहां बस बुक होती है या बैण्ड़ /
तख्ती कैसे बांधी जाती है /
कब करनी होती है कपाल क्रिया /
कैसे मिला जाता है परिचितों से
किसी शवयात्रा में /
अब,
मुझे बडा अजीब सा लगता था
लोगों का श्रृद्धांजलि देना शोक-सभा में
किसी मंजे हुये खिलाड़ी की तरह
अंततः,
मैं सीख ही गया
कैसे ऑर्गनाइज्ड़ होती है अंतिम यात्रा
कैसे निपटाये जाते है उपकर्म
अस्थि संचय / तीसरा /
गरुड़ पुराण कब बैठाना है
दसवाँ / नारायण बली / तेरहवीं का भोज
दान दक्षिणा की कार्यवाही
एक,
दिन अचानक मुझे खड़ा कर दिया गया
देने को श्रृद्धांजलि
किसी तरह लड़खड़ाते मैने
निभा दिया जिम्मेवारी की तरह
फ़िर कुछ और मौको के बाद
मैने
सीखा गीता के श्लोकों को /
मानस की चौपाईयों को /
सूक्तियों का सहारा लेना /
राम का सत्य और गति से सबंध जोड़ना
बिना शर्माये या घबराये कैसे बोलना है
और,
अपने आप को पारंगत कर लिया
समाज में रहने के लिये
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २३-नवम्बर-२००८ / समय : १०:२० रात्रि / घर / सुभाष मिमरोट की अंतिम यात्रा के बाद
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 comment
समाज के सत्य के अनुरूप खुद को ढालने के प्रयास में हम अपने चेहरे पर इतने मुखौटे लगाते चले जाते हैं कि हमारा असली चेहरा नकली चेहरों की भीड़ में कहीं गुम हो जाता है। बढ़िया कविता। विषय-चयन विशेष सराहनीय।
28 दिसंबर 2012 को 8:25 am बजेएक टिप्पणी भेजें