हम,
नही बदले हैं
चाहे ज़माना बदल रहा हो
या हालात
हम रहे खालिस के खालिस
बिल्कुल नही बदले
भुस,
पर चढी खाल
भला कभी बदली है जानवर में?
मुल्लमों ने कहीं बदली है तासिर किसी की
या पानी चढा़ देने से लोहा बदला है सोने में
हम वही के वही है
जो थे, जैसे थे खालिस के खालिस
हम,
कभी एक नही रख पाये
अपने आप को
सिर तलाशता रहा ताजपोशी के मौके
जहाँ भी मिले
और कंधे बचते रहे जिम्मेवारी से
सदा रहे अंतिम कतार में
हम,
जब भी कसे गये हो कसौटी पर
या उठाया हो हमने बीडा़
सदा ही बचना चाहा चुनौती से
उन्हीं रास्तों पर फ़िर चले
जिन पर गुजरते रहे हैं आज तक
हम नही बदले है
हर
कहानी कि शुरुआत कि
फ़िर उसी मोड़ पर से
किसी फ़ार्मूला फ़िल्म की तरह
जिसकी हर सीक्वेंस को हर कोई जानता है
चाहे अगली सीट पर बैठा हो या बॉलकनी में
हम नही बदले हैं
हम,
अभी भी देख रहे हैं
दिन में ख़्वाब/
ठोंक रहे हैं खुद की पीठ/
छोटे लक्ष्यों को बड़ा कर रहे हैं/
फ़िर उलझ गये हैं लक्षणों के निदान में
कारकों तक हमारी नज़र पहुँची ही नही
ना पहले ना अब
हम नही बदले हैं
बिल्कुल नही बदले
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २७-ऑक्टोबर-२००८ / रात्रि : ११.५३ / घर
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