बीज,
जब नही सह पाता है
तपन ज़मीन में गहरे
तो बचता बिखरने लगता है
जड़ों के रुप में
और जो बच जाता है
तोड़ कर जमीन निकल आता है बाहर
जान बचाता, आग सीने से लगाये
सीधा, टेढा या बांका
पौधा,
जब दिन भर तपता है धूप में
केवल अपने लिये भोजन (प्रकाश संश्लेषण)
नही बना रहा होता है
ना ही पैदा कर रहा होता है ऑक्सीजन
बल्कि तपन पी रहा होता है
और बची हुई तपन को बदल रहा होता है आग में
सहेजने के लिये
पेड़,
अपने जीवन चक्र में
ना जाने कितनी बार
रौंदा गया होता है या काटा
कभी शाखों से कभी तने से
कभी छांटा गया होता है
या नोचा गया होता है
बिना किसी मुरवव्त के
कभी टहनी से, कभी पत्तियों से
अपनी हर चोट के दर्द को जब्त कर
पेड़ बदल लेता है आग में
और दफ़न कर लेता है सीने में
लकड़ी,
में जब बदल जाता है पेड़
तब भी आग बचा कर रखता है
अपने अंतर यूँ ही खत्म नही होने देता
श्नै श्नै यह आग समा जाती है
लकड़ी के हर रेशे में और बसी रहती है कि
वह जब इस्तेमाल हो
चूल्हा जलाने में या चिता
तो कभी नही चूके
एकदम न्यौछावर कर दे अपनी उम्र भर की पूँजी आग
फ़िर बदल जाये राख़ में
उड़े हवा में लिये हुये तपन अपने साथ
और रख दे धरती के सीने पर
जहाँ कोई बीज छटपटा रहा है
तोड़ने को धरती सीना
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-नवम्बर-२००८ / रात्रि ११:०५ / घर
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3 टिप्पणियाँ
आपकी कविता में बीज की जीवन यात्रा के ज़रिए जीवन चक्र की ऊहापोह का भाव प्रवण चित्रण है । जीवन की ज़द्दोजहद को आक्रमक तेवरों के साथ शब्दों के सांचे में ढाला है । लंबे समय बाद इतनी गहरी और सारगर्भित रचना पढने मिली । बस एक गुज़ार्श है थोडी सी टाइट एडिटिंग कर दें ,रचना में जान फ़ुंक जाएगी ।
17 नवंबर 2008 को 9:24 am बजेबहुत सुंदर कल्पना शक्ति से सम्पन्न सुंदर शब्द rachnaa lazabbaab
17 नवंबर 2008 को 10:40 am बजेबहुत ही सुन्दर रचना. सृजन की प्रसव पीड़ा कितनी सुन्दर सर्जना को जन्म देती है इसे आपने अपने शब्दचित्रों में उकेरा है. शायद इंसानियत इन्हीं कुछ मुल्यों पर टिकी है.
19 नवंबर 2008 को 8:27 am बजेएक टिप्पणी भेजें