दिन,
सिमटते आ रहे हैं घण्टे में /
टूट रहे है मिनिटों में /
और सूक्ष्म ईकाईयों में
जहाँ तक मापा जा सकता है समय को
मन,
नही रख पा रहा है काबू
अपने आप पर
जैसे पंख लगा कर उड़ जाना चाहता हो
तौड कर सारी बेड़ियों को
या फ़ूट कर निकल आना चाहता है
किसी चट्टान के सीने को
आवारा बीज की तरह
सभी कुछ, अपना
बस छूटने को आया लगता है
दीवारें पी लेना चाहती हैं गुजारा हुआ वक्त
छत झुकी आ रही है सीने से लगाने
जमीन, सारी यादों को समा लेने के लिये उतावली है
सारे रिश्ते बस उतनी ही देर के हैं
ज़ब तक साँस लेनी है यहाँ
दिल,
पालने लगा है
कुछ सुनहरे से ख्वाब
और कल्पनाओं को पालने में
आशायें दे रही है झूला
उम्मीदों की लौरियाँ गाते
और दिल अंजुलि भर खुशियों में
डूब जाना चाहता है
रातें,
छोटी होती आ रही हैं
और सुबह, नींद में ही दस्तक देने लगी है
दिन बदल गये हों च्यूईंगगम में
कि खत्म ही नही होते
दुल्हन की तरह हम
बस बारात के आने की ख़बर ले रहे हैं
या कर रहे हैं बिदाई की प्रतीक्षा
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-नवम्बर-२००८ / रात्रि ११:१५ / घर
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2 टिप्पणियाँ
मुकेश जी ,
11 नवंबर 2008 को 5:44 pm बजेआप इतनी गहराई से लिखते हैं । मुझे अच्छी लगीं आपकी रचनाएं । मुझे कविता कहना दुनिउआ का सबसे दुरुह काम जान पडता है । आप्की सोच की गहराई को आलेख की शक्ल भी दें ,तो और अच्चा रहेगा । रचना धर्मिता के प्रति आपकी ईमानदारी के लिए बधाई ।
बहुत सुंदर गहरे भाव
14 नवंबर 2008 को 9:15 am बजेबहुत लंबे अरसे तक ब्लॉग जगत से गायब रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ अब पुन: अपनी कलम के साथ हाज़िर हूँ |
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