दीवारें,
सिमटी आ रही है
गलियाँ बिदक रही है
चौराहे बचते फ़िर रहे है
चुनाव के दिन है
खद्दर वाले भिया के सांड खुल्ले घूम रहे है
दीवारें,
अपने बदन को ढांप रही है
कि कंही नजर आया तो
मुँह काला किया बिना छोड़ेगें नही
गलियाँ,
गुम हो जाना चाहती हैं
मकानों में कहीं
कहीं दिखाई दे गई तो
रंगे बिना छोड़ेगें नही
चौराहे,
चाह के भी कुछ नही कर पा रहे हैं
एक टाँग ढांकते है तो
दूसरी उघड़ जाती है
कितना भी बचायें अपने आप को
छुट्टे सांड मुँह मार ही जाते हैं
आप,
कितना भी बचो
सुबह की शुरुआत हो या थकी शाम
चाहो ना चाहो वो चेहरे किसी
अनचाहे मेहमान से आ धमकेगें मुस्कुराते हुये
और खराब कर जायेगें
तुम्हारे मुँह का स्वाद वोट मांगते हुये
या झांकते मिल जायेगें
अख़बार से तुम्हारी सुबह में
और कुछ ना पढने देगें
ना सनसनी, ना सुर्खी
या कोई दरक आयेगा बंद दरवाजों के नीचे से
या उड़की हुई खिड़की कोई थपियायेगा
देर रात किसी रिकार्डेड आवाज से झुंझला देगा कोई
कितनी बार यह लगेगा
कि यह चुनाव हो रहे हैं या
बारिश का मौसम है
जहाँ,तहाँ, चाहे, अनचाहे जगह
उग आ रहे हैं कुकुरमुत्ते
और तुम कुछ नही कर पा रहे हो
सिवाय अपने भाग्य को कोसने के
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-नवम्बर-२००८ / समय : ०४:१५ / ऑफ़िस
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1 comment
वाह चुनाव और आआदमी की घुटन , बहुत बढिया ।
7 नवंबर 2008 को 7:05 am बजेएक टिप्पणी भेजें