उसकी,
उंगली कट गई है
मशीन में आकर
उनकी
पूरी शाम चिंता में गुजर रही है
जो मशीनों से कोसों दूर होते हैं
किसी भी,
एक्सीडेंट को
यदि, वह इंडस्ट्रीयल हो तो
९६ फीसदी गलती इंसानी होती है
बची ४ फीसदी ही
मशीन / स्थितियों / परिस्थितियों
के हिस्से में आती है
मीटिंग रुम में बहस गर्म है
कारणों और कारको का
अंदाज लगाया जा रहा है
किस तरह से हुआ होगा /
कोई सिम्यूलेट कर रहा है /
किसी का कहना है
कूछ तो करना पडे़गा / एनालिसिस होना है
काऊंटरमेजर प्लान करना है
उसकी,
की उंगली में टांके आये है
काफी खून बहा है
शुक्र है फ्रेक्चर नही हुआ है /
या टपकी नही है
किसी को संतोष है
वह घर जा चुका है
शाम हो आई है अभी भी
एक्सीडेंट कैसे हुआ नही खोजा जा सका है.
सभी को भूख लगने लगी है
रिर्पोट कल पेश की जानी है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-जनवरी-२००९ / समय : ११:३० रात्रि
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16 टिप्पणियाँ
बहुत सटीक चित्र खीँचा है आज कल सच मे ही मज़दूर के लिये कहाँ इन्साफ है मज़दूर क्य किसी के लिये भी नहीं सरकारी काम तो ऐसे ही चलता है संवेदनायें मर रही हैं शुभकामनायें
1 अगस्त 2009 को 3:31 pm बजेअक्सर यही होता है। गलतियाँ सिर्फ मजदूर ही तो करते हैं, मालिकों की कभी गलती होती है क्या? सुन्दर भाव।
1 अगस्त 2009 को 3:48 pm बजेसादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
दारूण
1 अगस्त 2009 को 4:06 pm बजेमर्मस्पर्शी
बहुत ही भावपूर्ण रचना
मर्मस्पर्शी ,भावपूर्ण रचना
1 अगस्त 2009 को 4:52 pm बजेबहुत ही गहरे भाव के साथ बेहतरीन प्रस्तुति के लिये बधाई ।
1 अगस्त 2009 को 4:59 pm बजेअंतिम की पंक्तियाँ बहुत कुछ कह गयी.......
1 अगस्त 2009 को 5:36 pm बजे"एक्सीडेंट कैसे हुआ नही खोजा जा सका है.
सभी को भूख लगने लगी है"........
शब्द नही है .......
उंगली कट गई .......क्या बात है?
बहुत ही बडी बात को इतनी सहजता से कह गये यह सिर्फ आपकी लेखनी ही कर सकती है ...बस
बहुत-बहुत-बहुत.... सुन्दर रचना है, सचमुच कमाल की।
1 अगस्त 2009 को 6:23 pm बजे--------
· चाँद, बादल और शाम
Saty likha ..report kabhee mazdoor ke haq main nahi aati ...!!
1 अगस्त 2009 को 6:58 pm बजेक्या चिय्त्र खिंचा है........फैक्ट्री की सचाइयां सामने अ गयी............ शशक्त रचना....... सटीक लेखन
1 अगस्त 2009 को 8:03 pm बजेयथार्थ !
2 अगस्त 2009 को 10:23 am बजेबंधुवर,
2 अगस्त 2009 को 7:55 pm बजेपीड़ित और पीड़ा दोनों से असम्पृक्तता और असंबद्धता का भाव इस कविता में प्रबल होकर उभरा है. संवेदनाएं तो कब की मर चुकीं, अब ये तटस्थता का तथा संवेदनहीनता का युग है. यह महज़ औद्योगिक क्षेत्र में ही नहीं, सर्वत्र व्याप्त है ! आपकी यह रचना अपनी विशिष्ट भाषा में उसे ही रेखांकित करती है. मेरा साधुवाद स्वीकार करें. सप्रीत..
गलतियों की एनालिसिस का भी एक अपना क्षेत्र है... शायद घटना पर अपनी जानकारी को ज्यादा दिखने की होड़.
2 अगस्त 2009 को 8:10 pm बजेजिसके साथ गलती से भी दुर्घटना घट गई, सर्वप्रथम उसके भरपाई की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि पीड़ित व्यक्ति को दुर्घटना झेलने की शक्ति प्राप्त हो सके.
हम किसी के मरने पर उसके परिवार को सदमा झेलने की संवेदनाएँ तो देते ही है और हो सकता है तो आर्थिक मदद भी की जाती है, फिर दुर्घटना ग्रस्त व्यक्ति के लिए ऐसा क्यों नहीं, शायद मानवता मर सी गई है..........
बहुत ही सुंदर और गहरे भाव के साथ लिखी हुई आपकी रचना बहुत अच्छी लगी! बेचारे मज़दूर दिनभर इतनी कड़ी मेहनत करते हैं और बदले में ये कहा जाता है की उनका कसूर है! मालिक से तो कभी गलती हो ही नहीं सकती क्यूंकि वो तो अपने आपको भगवान समझते हैं!
3 अगस्त 2009 को 7:06 am बजेभाई,
3 अगस्त 2009 को 11:17 am बजेकारखानों की परिस्थितियों पर लिखा हुआ सच!
व्यथा और निष्ठुरता का मार्मिक चित्रण है।
जीतेन्द्र चौहान
परिमार्जित ,संपन्न और सुरुचिपूर्ण भाषा के सच्चे रचनाकार प्रिय तिवारी जी |अंतिम से पहली लाइन में सार निचोड़ | याद आया पैर से बीमार सायकल -रिक्शा चलाने वाले से पूछा भैया इन बीमार पैरों से तुम कैसे रिक्शा चला पाते होगे तो उसने कहा था "" बाबूजी रिक्शा पैर से नहीं पेट से चलता है | एक फिल्म भी याद आई जिसमे श्रमिक का ,कपडा मिल में हाथ कट जाता है तो मिल मालिक कहता है ""और उसके खून से मेरा लाखों रूपये का कपडा ख़राब हो गया उसका हर्जाना कौन देगा
3 अगस्त 2009 को 4:38 pm बजेमुकेश जी लगता है आपका ब्लॉग पीछे बहुत पढने से छुट गया है :) इस रचना में जो एक गरीब मजदूर के दर्द का शब्द चित्र आपने खींचा है वह दिल को बहुत गहरे से छु गया ..इस में जो व्यथा आपने कही है वह कहीं न कहीं मेरी ज़िन्दगी को भी छु जाती है ..संवेदनाएं सच में कहीं ख़त्म होती जा रही है ..इस में लिखे दर्द का जो मुझसे नाता है वह फिर कभी ज़िक्र होगा ..फिलहाल इतनी सुन्दर रचना के लिए बधाई
12 अगस्त 2009 को 11:51 am बजेएक टिप्पणी भेजें