किसी,
मुद्दे पर जारी बहस
जब छोडती है बौद्धिक स्तर को
तो उतर आती है तू तू-मैं मैं पर
और फिर हाथापाई पर
कोई कभी भी और कहीं से भी
भाग लेने लगता है बहस में
जैसे किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चढते उतरते हैं लोग
मुद्दे का गद्दा
पहले बदलता है तकिये में
अंततः हवा मे़ उडने लगती है रुई
न सूत बचता है न कपास
फिर भी जुलाह¨ में लट्ठम लट्ठ जारी रहता है
औरर बोर्ड रूम के द्वार पर
“लाल“ बल्ब जलता रहता है देता संदेश
कि
यह मीटिंग अभी खत्म नही होने वाली
---------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक: 18-जून-2008 / सुबह: 10:45 / विभागीय बैठक के दौरान
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28 टिप्पणियाँ
समाज के वर्तमान नीतियों पर प्रहार करती..
26 अगस्त 2009 को 1:36 pm बजेसंदेश वाहक कविता..अगर विचारों को माना जाए तो..
बधाई..
वाह बहुत सुन्दर शब्दों मे आज के सच को उकेरा है बधाई
26 अगस्त 2009 को 2:35 pm बजेवाह बहुत सुन्दर शब्दों मे आज के सच को उकेरा है बधाई
26 अगस्त 2009 को 2:35 pm बजेखामोश हूँ ..सही कहा ..परिस्थितियाँ तो बनाती ही हैं हमें,जो हम बन जाते हैं.....लेकिन कई बार हम समझौते कर लेते हैं ..जहाँ नही करने चाहियें ..पर समय रहते ये सब समझ में आ जाय तो क्या बात थी ...!दुनिया अलग नज़र आती...ना शिकवे होते न गिले!
26 अगस्त 2009 को 2:50 pm बजेयह तो हिन्दी ब्लॉगजगत का हाल है - यहां बौद्धिकता का दान बहुत आसानी से होता है! :)
26 अगस्त 2009 को 3:27 pm बजेबहुत ही सही कहा आपने ।
26 अगस्त 2009 को 3:50 pm बजेBadhiya hai.
26 अगस्त 2009 को 4:19 pm बजे-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आंतरिक स्तर पर भी इस तरह काअ दव्न्द चलता रहता है ........यह और नजरिया से देखा जा सकता है आपके रचना को बाह्य स्तर पर भी इसे देखा जा सकता है ........बहुत ही सुन्दर रचना .....बधाई
26 अगस्त 2009 को 4:41 pm बजे'बिखरे सितारे ' पे टिप्पणी के लिए धन्यवाद !
26 अगस्त 2009 को 8:23 pm बजेमुद्दे का गद्दा
26 अगस्त 2009 को 9:25 pm बजेपहले बदलता है तकिये में
अंततः हवा मे़ उडने लगती है रुई
न सूत बचता है न कपास
फिर भी जुलाह¨ में लट्ठम लट्ठ जारी रहता है
कितना सही वर्णन है बोर्ड मीटिंग्ज का । सुंदर ।
मुद्दे का गद्दा
26 अगस्त 2009 को 9:59 pm बजेपहले बदलता है तकिये में
अंततः हवा मे़ उडने लगती है रुई
अति सुन्दर रचना
.
27 अगस्त 2009 को 12:02 am बजे.
.
अच्छी रचना है।
फिर भी बहस का न होना भयावह है।
सार्थक हो या निरर्थक, बहस का हो पाना आश्वस्त
करता है।
किसी,
27 अगस्त 2009 को 10:28 am बजेमुद्दे पर जारी बहस
जब छोडती है बौद्धिक स्तर को
तो उतर आती है तू तू-मैं मैं पर
और फिर हाथापाई पर
कोई कभी भी और कहीं से भी
भाग लेने लगता है बहस में
जैसे किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चढते उतरते हैं लोग
sahi likha hai aapne.....bahut hi sunder vichaar ke saath.....
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aapka profile prerna daayak hai......
Dhanyawaad.....
satya ko ujagar karti bahas.
27 अगस्त 2009 को 11:33 am बजेजब छोडती है बौद्धिक स्तर को
27 अगस्त 2009 को 5:43 pm बजेतो उतर आती है तू तू-मैं मैं पर
वाह!! बहुत सुन्दर!! बधाई!!
भाई,
27 अगस्त 2009 को 6:47 pm बजेपैनी नज़र पाई है, तू-तू-मैं-मैं वाली बात कुछ ज्यादा जमी और पब्लिक ट्रांसपोर्ट तो बन ही जाती है क्योंकि सभी मोहल्ले से निकलकर शहर में आये हैं।
जीतेन्द्र चौहान
बंधुवर,
27 अगस्त 2009 को 7:00 pm बजेसिर्फ कविता नहीं, गहरा कटाक्षपूर्ण बयान, बोलते बिम्ब, प्रतीk इतने साफ़ कि निरावृत्त हो सामने खड़े hain--'मुद्दे ke gadde का पहले तकिया होना, फिर उसकी रुई का उड़ना hawa me.... लोग जैसे public ट्रांसपोर्ट में चढ़ने-उतारनेवाले... क्या बात है ! आप आसपास कि ज़मीन से कविता के स्फुल्लिंग उठाते है, इसीलिए बात इतनी धारदार हो जाती है. बधाई !!
.....लेकिन ये चुप-सी क्यों लगी है ? नागार्जुन जी पर मेरा संस्मरण आपकी दृष्टि से पूरा ही छूट गया न ? चाहता था, आप उसे पढें और अपनी पतिक्रिया से अवगत करें....
समधर्मी....आ.
पर क्या ये बौद्धिक स्तर की बहस हुयी...??:)
28 अगस्त 2009 को 2:37 pm बजेमगर होता यही हाल है...सच में..:)
यथार्थ लिखा!!!
बहुत खूब !!
wah achhi kavita he tivariji, bahas yaani hi hota he LATHTHAM LATHTHAA../ bodhdhik star ko tyagne ke baad kuchh bhi ho jhagde ki jad hi he/
28 अगस्त 2009 को 5:58 pm बजेsundar tarike se samaz ki ek atigambhir baat ko ukera he/
मुद्दे का गद्दे से तकिये मे और फिर रूई मे बदलकर हवा मे उडना......
28 अगस्त 2009 को 8:55 pm बजेऔर अंतत: 'यह मीटिंग अभी खत्म नही होने वाली'
'बहस' तो बहस के लिये ही होती है यह खत्म कैसे हो जायेगी.
आपने तो शब्दो को जिस तरह पिरोया है क्या कहने
बहुत सुन्दर
बुद्धिजीवियों की बहस के सड़कछाप रूपांतरण का अच्छा चित्रण है.
28 अगस्त 2009 को 9:56 pm बजेकविता अच्छी भी लगी और सच्ची भी खासकर गद्दे से रुई तक का रूपक.
29 अगस्त 2009 को 4:30 am बजेवाह! क्या कमाल बात कही है.
29 अगस्त 2009 को 12:24 pm बजेवाह-वा, नये आयामों तक पर फैलाये हुए है आपकी रचना!
29 अगस्त 2009 को 2:49 pm बजे---
तख़लीक़-ए-नज़र
भाग लेने लगता है बहस में
30 अगस्त 2009 को 7:08 pm बजेजैसे किसी पब्लिक ट्रांसपोर्ट में चढते उतरते हैं लोग
bahut sateek upma di hai .
sashakt abhivykti
badhai
बहुत खूबसूरती से आपने सच्चाई को बखूबी प्रस्तुत किया है ! बहुत बढ़िया लगा ! इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई !
31 अगस्त 2009 को 6:51 am बजेआप सभी का धन्यवाद!!!
31 अगस्त 2009 को 9:02 am बजेआपकी टिप्पणियाँ मेरा मार्गदर्शन करती हैं और आपका प्रोत्साहन मेरी सबसे बड़ी धरोहर है।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
समाज की visangtiyon पर karaara प्रहार करती rachna ...........
31 अगस्त 2009 को 12:06 pm बजेएक टिप्पणी भेजें