मुझे,
सुबह कोई,
साजिश रचती हुई लगती है
छोटी होती परछाईयों का खौफ़ दिल बैठाता है
यूँ लगता है कि
मेरे सपनों से दुश्मनी पाले बैठा है कोई
दुनिया भागते हुये लगती है
और मैं जकड़ा जाता हूँ
अपने ही साये में
मुझे,
दिन में ड़र लगता है
घर से बाहर निकलने में
सिहरन महसूस होती है
सांसों में ज़हर घुला सा लगता है
घुल जायेगा मेरा वुजू़द कुछ और देर खुले में रहा तो
मैं सिमटने लगता हूँ
मुझे,
लगता है कि
शाम जैसे जैसे ढ़लेगी
कोई अज़नबी सा आ दुबकेगा
मेरी परछाईयों में
साँसों में तेजी आने लगेगी
हड़बड़ाहट से लड़खड़ाते हुये कदम
कैसे भी उठा लेगें मेरा बोझ
बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
मेरी, अपनी सीमाओं से परे
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-अगस्त-२००९ / समय : ११:२२ रात्रि / घर
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15 टिप्पणियाँ
bahut hi badhiya air umda rachna
8 अगस्त 2009 को 10:51 am बजेmain nishabd hoon aapki is kavita par ... aapne shabdo ke jaariye itni gahri baato ko abhivyakt kar diya hai .. main kya kahun .. badhai ..sir
8 अगस्त 2009 को 10:54 am बजेvijay
pls read my new poem "झील" on my poem blog " http://poemsofvijay.blogspot.com
achhi kavita
8 अगस्त 2009 को 10:57 am बजेbahut hi achhi kavita
achhi isliye ki ismen zindgi ki khushboo hai.......
जब साये लंबे होते हैं ,
8 अगस्त 2009 को 12:31 pm बजेएहसास शाम का होता है ,
दिन चुराया जाता है ,
इक लकीर -सी खिंच जाती है ,
जब अपना चाँद नज़र न आए ,
रात डराने लगती है ...
Aapki rachna padhee,to ye ehsaas jage..
http://shamasansmaran.blogspot.com
http://kavitasbyshama.blogspot.com
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
http://shama-kahanee.blogspot.com
http://shama-baagwaanee.blogspot.com
बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
8 अगस्त 2009 को 2:39 pm बजेमेरी, अपनी सीमाओं से परे
बेहद पंसद आई आपकी कविता
बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
8 अगस्त 2009 को 3:13 pm बजेमेरी, अपनी सीमाओं से पर
आशा ही तो जीवन है बहुत सुन्दर मर्म को छूती कविता आभार
शाम जैसे जैसे ढ़लेगी
8 अगस्त 2009 को 3:46 pm बजेकोई अज़नबी सा आ दुबकेगा
मेरी परछाईयों में
===
सुबह -- दिन -- और शाम का डर
मै तो पसीने से तरबतर
हांफता कांपता
एक और दिन निकलने का इंतजार करता हूँ
===
क्षमा करे खूबसूरत रचना के अतिरेक मे मैने अपना डर भी बयान कर दिया.
हड़बड़ाहट से लड़खड़ाते हुये कदम
8 अगस्त 2009 को 4:52 pm बजेकैसे भी उठा लेगें मेरा बोझ
बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
मेरी, अपनी सीमाओं से परे
LAJAWAAB ABHIVYAKTI KW SAATH EK AUR SUNDAR RACHNA AAPKI.... HAR RACHNAA KUCH ALAG HAT KAR HOTI HAI AAPKI..
बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
9 अगस्त 2009 को 11:05 pm बजेमेरी, अपनी सीमाओं से परे
YAHEE POORN SATY HAI
Bhai,
10 अगस्त 2009 को 4:18 pm बजेGambheer aur Saarthak rachana.
Jeetendra
बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
10 अगस्त 2009 को 6:09 pm बजेमेरी, अपनी सीमाओं से परे..यही पंक्तियाँ बहुत कुछ उम्मीद और आशा जगा जाती है ..सुन्दर अभिव्यक्ति सुन्दर भावों की इस रचना में आपने व्यक्त की है ...
bade dino baad aapke vlog pe aaiya//
11 अगस्त 2009 को 8:44 am बजेkavita se pehle aapke profile ki baat:
"एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार में जन्म, जहाँ ज़रुरते ज़ेब से बड़ी और समझदारी उम्र से बड़ी होती है. "
accha laga padhkar...
wakai main yahi satya hai.
Kavita ki baat karein...
दुनिया भागते हुये लगती है
और मैं जकड़ा जाता हूँ
अपने ही साये में
atyand marmik ,introvert par egocentric kavita.
haan par har kavita samajik sarakaaron aur premabhivyakti nahi ho sakti..
acchi rachna:
"बस विश्वास ही कहीं लुढ़कता फिर रहा होगा
मेरी, अपनी सीमाओं से परे"
दुनिया भागते हुये लगती है
11 अगस्त 2009 को 9:24 pm बजेऔर मैं जकड़ा जाता हूँ
अपने ही साये में
mn mein samaaii kisi gehri kash.m.kash ko badee khoobsurti se
shabdoN meiN piroyaa hai aapne....
vishwaas ka daaman na chhorne ka sandesh bhi nihit-sa prateet huaa .
badhaaaeeee
---MUFLIS---
बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! इस बेहतरीन और शानदार रचना के लिए बधाई!
13 अगस्त 2009 को 6:01 am बजेतिवारीजी,
13 अगस्त 2009 को 5:35 pm बजे'अपनी सीमाओं से परे' कविता पढ़ी. भावों-विचारों का गुफित हो जाना और सरल-शिष्ट शब्दों में कुछ इस अंदाज़ से अभिव्यक्त होना की परमानन्द की प्राप्ति हो, ये कमाल आपकी लेखनी-चंचु को ही हासिल है. बधाई !
लेकिन कविता की एक पंक्ति पर रुकता हूँ और सोचता हूँ कि ऐसा ही लिखा गया है या यह 'विजिट' अथवा 'बारहा' की कोई ख़ास अदा है ! पंक्ति है--'दुनिया भागते हुए लगती है'... क्या इसे '...भागती हुई लगती है', नहीं होना चाहिए ?
'आकाश की शिल्प-सृष्टि' पर आपकी टिप्पणी से अभिभूत हुआ. आपने मर्म को पकडा. आभारी हूँ. अगला निवेदन यह कि महाकवि नागार्जुन पर लिखा संस्मरण 'अनंत यात्री...' आप ज़रूर पढें और निर्भीक टिपण्णी देने की कृपा करें.
साभिवादन --आ.
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