यह कविता ब्लॉग पर प्रकाशन के पूर्व पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के अगस्त माह के अंक में प्रकाशित हुई थी। यह पत्रिका पूज्य दीदीमाँ साध्वी ऋतुंभरा जी के आशीर्वाद से उनके संस्थान "वात्सल्य ग्राम" द्वारा किया जाता है।
यहाँ पुनर्प्रकाशन एवं पेज का डिजाईन पत्रिका "वात्सल्य निर्झर" के साभार सहित,
मुकेश कुमार तिवारी
-------------------------------------------------
प्रतीक्षारत तुलसी
तुलसी,
आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
आँगन में खडी़ है
प्रतीक्षारत
कि सुबह कोई पूजेगा /
अर्ध्य देगा / सुहाग लेगा
शाम कोई सुमिरन करेगा
संध्या के साथ वह भी पूजी जायेगी
अब,
सुबह से ही भूचाल आ जाता है
घर में
जो देर शाम तक
निढाल हो गिर जाता है बिस्तर में
अल्मारियों में टंगे हैंगर
इंतजार करते रह जाते है
कपड़ों का
सिर तलाशते रह जाते हैं
गोद
कोई रोता भी नही बुक्का भरके
किसी को याद नही आती
तुलसी
जो आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
किसी कोने में सूख रही है
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक: 14-जून-2009 / समय: 5:00 बजे सांय / घर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
24 टिप्पणियाँ
सुन्दर सर्गर्भित रचना है तुल्सी के माध्यम से आज के रहन सहन मे हम अपनी विरासत को कैसे खोते जा रहे हैं बहुत सुन्दर शब्दों मे प्रस्तुत किया है बहुत बहुत बधाई
31 अगस्त 2009 को 9:26 am बजेसुन्दर सर्गर्भित रचना है तुल्सी के माध्यम से आज के रहन सहन मे हम अपनी विरासत को कैसे खोते जा रहे हैं बहुत सुन्दर शब्दों मे प्रस्तुत किया है बहुत बहुत बधाई
31 अगस्त 2009 को 9:26 am बजेसुंदर अभिव्यक्ति ..रचना बेहद अच्छी है.
31 अगस्त 2009 को 9:41 am बजेसुन्दर! आप इसे टाइप करके भी पोस्ट कर दें इसी पोस्ट में एडिट करके। अच्छा रहेगा।
31 अगस्त 2009 को 9:49 am बजेतुलसी पर बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने आभार्
31 अगस्त 2009 को 10:27 am बजेतुलसी
31 अगस्त 2009 को 11:14 am बजेजो आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
किसी कोने में सूख रही है
तुलसी के माध्यम से आपने बहुत ही बेहतरीन बात कही है .सच है यह ..बेहतरीन भाव लिए खुबसूरत लिखा है आपने
जो आज भी बिरवा होने का भ्रम पाले
31 अगस्त 2009 को 11:20 am बजेकिसी कोने में सूख रही है awesome....
सर्गर्भित सुन्दर रचना .............तुल्सी तो आज भी aastha का prateek है पर आज के समय में इन aasthaon को लोग bhoolne लगे हैं .........सुन्दर शब्दों मे saji lajawaab rachna है ..........बहुत बहुत बधाई
31 अगस्त 2009 को 12:02 pm बजेबहुत ख़ूब, बहुत सुन्दर सृजन
31 अगस्त 2009 को 12:48 pm बजे--->
गुलाबी कोंपलें · चाँद, बादल और शाम
behad samvedansheel rachna hai.......tulsi ke madhyam se gahan abhivyakti.
31 अगस्त 2009 को 2:22 pm बजेbadalte parivesh me tulsi bhi pratiksharat ! waah......
31 अगस्त 2009 को 3:48 pm बजेमुकेश जी आपकी रचना का संसार विशालकाय है ......आज हम ही आपने संसकारो को भूलते जा रहे है ......बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति देकर हमे आपने कृतग़्य़ कर दिया .....बहुत बहुत बधाई
31 अगस्त 2009 को 4:09 pm बजेसादर
ओम आर्य
गोद
31 अगस्त 2009 को 5:20 pm बजेकोई रोता भी नही बुक्का भरके
बहुत सुन्दर ही नही एहसास को बिलकुल करीब से गुजार दिया आपने.
सुन्दर रचना
31 अगस्त 2009 को 7:00 pm बजेManav janm liye anant 'tulsiyan' intezaar me hain..ki, koyi nazre inayat kare!
31 अगस्त 2009 को 8:18 pm बजेhttp://shamasansmaran.blogspot.com
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath
http://lalitlekh.blogspot.com
http://shama-kahanee.blogspot.com
http://baagwanee-thelightbyalonelypath.blogspot.com
aajkal ki jeevansahili ko bahut hi achche se chitrit kiya hai aapne........
31 अगस्त 2009 को 8:19 pm बजेसंस्कृति से भागते लोग , जीवन के आपाधापी में संस्कारों को भूलते लोग....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.
1 सितंबर 2009 को 2:33 pm बजेभाई,
1 सितंबर 2009 को 3:09 pm बजेसंस्कृति का पाठ फिर से पढ़ा, अच्छा लगा। काश कि हर आँगन इक तुलसी कानन हो और लोग समय से घर लौटें, बच्चों के साथ खेलें, संध्या वंदन करें ईश्वर का सुमिरन करें और इस आपाधापी से भरी जिन्दगी से निजात पायें।
जीतेन्द्र चौहान
संस्कृति का ऐसा तिरस्कार, जो आज के समाज में निरंतर बढ़ता ही जा रहा है, उस पर यह एक तीखी प्रतिक्रिया है, साथ ही संस्कारों का पाठ, भूल चुके नव-पीढी ही नहीं हर किसी को बता भी रही है.
2 सितंबर 2009 को 9:15 am बजेसुन्दर भावों से भरी यह रचना बेहद पसंद आई.
हार्दिक धन्यवाद.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
बंधुवर,
2 सितंबर 2009 को 10:33 am बजेये महज़ एक कविता नहीं, आज के युग की त्रासद दशा का अनोखा बयान है, तेज़-रफ़्तार ज़िन्दगी में पीछे छूटते संस्कारों की पीडा का मर्मबेधी उल्लेख है ! सच है, तुलसी का भ्रम स्थाई भाव में रहेगा अब ! लेकिन, आपकी इस कविता की पंक्ति जब भी याद आएगी, मन में टीस उठेगी.
अप्रतिम रचना ! बधाई !!
दीदीमाँ साध्वी ऋतुंभरा की परिचयात्मक पोस्ट देते मित्र। यूंही जिज्ञासा है।
2 सितंबर 2009 को 3:29 pm बजेप्रिय तिवारी जी |आप जीवन में दैनंदिन घटित बातों पर रचनाएँ लिखते है जिनको पढ़ कर आत्मानुभूति होती है |तुलसी के ऊपर लिखा बहुत अच्छा लगा वास्तव में आज तुलसे को एक पौधा मात्र मान लिया गया हैबचपन की याद करता हूँ हर घर में एक आँगन होता था उसके बीचों बीच एक तुरसाना होता था जिसमे तुलसी जी का पौधा लगा होता था हर शाम दीपक लगाना और तुलसी की परिक्रमा करना |सुबह दो चार पत्ते तोड़ कर लाना और भगवान के भोग और जल में डालना | आज तो ये आलम है के ""जारे तिवारी जी के यहाँ से चार पांच पत्ते तुलसी के लेआ और तुलसी के पत्ते डाल कर चाय बना दे "" न तुलसी के पत्र का महत्त्व पता न बीज का | आवला ,तुलसी ,बड पीपल सब की पूजन और ब्रत सब भुला गए |तुलसी की पूजन कर उन्हें वस्त्र उडाते थे मन भी प्रसन्न रहता था
3 सितंबर 2009 को 8:53 am बजेबहुत सुन्दर ।
11 सितंबर 2009 को 10:13 am बजेदादा,
13 सितंबर 2009 को 9:52 pm बजेतुलसी वाली कविता बहुत अच्छी लगी. मुद्दतों बाद आज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ, तब आपको पढने का मौका मिला.
एक टिप्पणी भेजें