दिनभर,
जो देखा / जो खला / जो चुभा
बदलता रहा विचारों में मेरे अंतर
और मैं,
उन्हें चबाता रहा महीन और महीन
यहाँ तक कि जबड़े देने लगे जवाब
तब भी विचार थे कि
पिसने का नाम ही नही लेते थे
दोपहर तक,
मैने महसूस किया कि
मैं बदल आया हूँ चक्की पाटों में
और विचार दांतों में फंस आये हों
सौंफ की तरह किसी ढीली बत्तीसी में
और बैचेन करते रहे मुझे जीभ की तरह
जो हर पल इसी ताक में बार-बार टटोलती है कि
किसी भी पल आजाद हो सकती चुभन
शाम होते होते,
मेरा धैर्य गुम होने लगा
तब भी विचार वैसे के वैसे ही थे
रात में ना जाने कैसे मुँह से निकलकर
भिनभिनाने लगे मच्छरों की तरह / काटने लगे
फिर मेरे सपनों में आने लगे रह-रह कर
सुबह,
देर रात के हैंगओवर की तरह
मेरे सिरदर्द में मौजूद थे विचार
मेरी उबासियों में / अंगड़ाईयों में
फिर तौलिये से लिपट चिपकते गये
सारे शरीर से
और जैसे मैं
बदल आया हूँ एक कब्रगाह में
जो विचार नही बदल पाया किसी कविता में
और किस के नाम नही हो पाया
बस दम तौड़ता है मेरी कैद में
पिसते हुये / सिसकते हुये / शरीर से चिपके हुये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:०५ रात्रि / घर
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6 टिप्पणियाँ
विचार
25 दिसंबर 2008 को 2:55 pm बजेपिसते हुये / सिसकते हुये / शरीर से चिपके हुये
रहेगा जहन में
और फूटेगा किसी दिन नए विचारों के साथ
कविता के रूप में.
इस ब्लॉग पर कवितायें पढ़ना एक अलग सा ही अनुभव है. Keep it up!
25 दिसंबर 2008 को 10:30 pm बजेमुकेश जी, आपकी कविता पढी काफी अलग हटके है अच्छी लगी...!
26 दिसंबर 2008 को 9:59 pm बजेsir , aapki ye kavita ,bahut se vicharo ko sammlit kiye hue hai , aur kaise ek kavita janam leti hai ,uski peeda ko darshaya gaya hai ..
27 दिसंबर 2008 को 4:43 pm बजेbahut badhai ...
sir meri kuch aur kavitao ko aapka pyar chahitye..
aapka vijay
poemsofvijay.blogspot.com
"..jo dekha, jo khlaa, jo chubhaa
27 दिसंबर 2008 को 8:31 pm बजेbadaltaa rahaa vichaaroN meiN.."
dbe, kasmsaate, karvateiN lete vichaaroN ki bahot sleeqe se tarjumaani ki hai aapne...dhairyaa
gum hone ke baavjood bhi, aur
hang-over sehne tk aapka lehjaa steek aur umdaa hi rahaa.
mubaarakbaad...!
---MUFLIS---
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