लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
घर पर रह ही नही पाते हैं
जब भी घर मे होते हैं बाहर रमे रहते हैं
बाहर उन्हें घर याद ही नही आता
जब लौटते हैं घर
तो उठा लाते है बाजार
और बिखेर लेते है बिस्तर पर
ताकि नींद में / सपनों में उनके
बाजार सजा रहे
यहां तक कि सुबह की चाय परोसे बाजार उन्हें
यह लोग घर पर जी ही नही सकते
लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
बुनते हैं दीवारों में दुनियाँ
छतो पर टाँक लेते है आसमान
और घर से बाहर निकलते ही नही
बाहर निकले भी कभी तो
ओढ लेते घर लबादे की तरह
और जीते हैं कुयें के मेंढक की जैसे
यदि कभी किसी संमदर में डूबे तो
बनाने लगते है एक कुआं संमदर के सीने में
यह लोग घर से बाहर जी ही नही सकते
लोग ऐसे होते हैं कि
वो,
ना तो बाहर ही होते है
ना घर के भीतर
दहलीज पर अटके हुये लोग
बाजार खींचता है उन्हें रह-रहकर बाहर
और घर जकड़े रहता है बेड़ियाँ में
मन चाहता है उड़ना आकाश में
और शरीर परोस देता है प्याली भर आसमान
हमेशा हासिये में अटक जाता है वजूद इनका
यह लोग काट देते हैं जिन्दगी त्रिशंकु से
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २१-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१५ रात्रि / घर
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7 टिप्पणियाँ
Bhai tiwari ji,
22 दिसंबर 2008 को 2:16 pm बजेyou have written a very real picture of today's life style of man . congratulations. try to write daily because daily writing makes a writer perfect.
घर में ही रमे रहने वाले और ख्याली पुलाव पकाने वाले ,और घर से अटेचमेंट न रखने वाले दोनों की सुंदर व्याख्या के बाद जो देहरी पार अटके लोग है जो शायद सोचते होंगे के देहरी पर जमे रहे और भीतर और बाहर दोनों तरफ़ उजियारा करते रहें वास्तव में ये लोग त्रिशंकू ही है
23 दिसंबर 2008 को 3:15 pm बजेबेहद सुंदर कविता.इस ब्लॉग पर आकर प्रसन्नता का अनुभव हुआ. कभी आप हमारे ब्लॉग पर भी आयें !!
24 दिसंबर 2008 को 8:57 pm बजेआपको बहुत बहुत बधाई
24 दिसंबर 2008 को 9:22 pm बजेसुंदर रचना यथार्थ आपकी रचना में सच्चाई है
अरे यह तो गज़ब की रचना है भैया, दिल कर रहा है की अभी जाकर एकाध लोगों को सुना दूँ! बधाई!
25 दिसंबर 2008 को 7:09 am बजेदहलीज पर अटके हुये लोग
6 जनवरी 2009 को 12:01 am बजेबाजार खींचता है उन्हें रह-रहकर बाहर
और घर जकड़े रहता है बेड़ियाँ में
मन चाहता है उड़ना आकाश में
vaah khoob dilki baat kahi. shukriya.
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