घर,
जब बदलने लगता है मकान में
तो पहले दीवारें पीने लगती हैं शब्दों को
कुछ सुना-अनसुना सा गीत गाने लगती हैं
फ़िर जब्त करने लगती हैं शब्दों को
कि सुनाई ही ना दें
और बिखेरती रहें अलसाया मौन
कदमों की छापो के बीच
दीवारें,
सूंघने लगती हैं
जिस्मों से आती गंध को
और समाने लगती हैं खाली जगह में
फ़िर जकड़ने लगती हैं
बातों को / कहकहों को / कानाफ़ूसी को
और बदल के रख देती है दीमको में
जो लग रही है रिश्तों के बीच /
रिश्तों के बीच दीवारें बो रही हैं दूरियाँ
बिस्तर बदल रहे हैं मरूस्थल में
और नागफनी उगने लगी हैं जिस्मों के बीच
सबंध सेंके जा रहे हो या भूने
रिश्तों के अलाव पर
मैं,
बहुत सोचता हूँ
कब घर बदल जाये मकान में
तंग आ चुका हूँ
दीवारों से बचते हुये चलने में
कुछ पता ही नही चलता कि
कब किस खाली जगह में उग आयें दीवार
घर ना हुआ
किसी आर्किटेक्ट की वर्क-बुक हो
और हम ताक रहे हो टूटते हुये घर में
किसी बनते हुये मकान को
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०१-दिसम्बर-२००८ / समय : रात्रि १०:४५ / घर
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1 comment
घर का मकान में बदलना एक अच्छी जानकारी उन लोगोंको जो घर और मकान को एक ही अर्थ में प्रयोग करते हैं सुना अनसुना सा गीत और अलसाया मौन शब्द का प्रयोग सुंदर /
3 दिसंबर 2008 को 11:38 am बजेजिस्म रिश्ते नागफनी कहकहे और काना फूसी का प्रयोग घर से तब्दील होते मकान के लिए बहुत उपयुक्त बन पड़ा है /
अन्तिम पेरा तो बहुत भावुक कर दिया तिवारी जी आपने बचते हुए चलने से तंग आ चुका हूँ एक पीडा है ,कसक है एक अज्ञात भय भी झलकता है /
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