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तार तार सच

सोमवार, 15 दिसंबर 2008

हम,
लपेटते हैं तार-तार सच
और लपेटते ही चले जाते है
जिन्दगी भर
फिर एक दिन बदल जाते हैं
कुकून में

जब,
उनके हाथ चढते हैं तो
पहले उबाले जाते हैं
फिर नोचा जाता हैं सच
और बदल दिया जाता है रेशम में
सजने के लिये उनके बदन पर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर

10 टिप्पणियाँ

Vinay ने कहा…

कविता पढ़कर अच्छा लगा!

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http://prajapativinay.blogspot.com/

15 दिसंबर 2008 को 5:16 pm बजे

Respected sir,
Ap mere blog par aye,aur meree rachna ko saraha,ye mera saubhagya hai.Asha hai age bhee mere utsah ko badhayenge.
apkee kavitayen aj ke ytharth ko chitrit karne ke sath hee ek alag tarah ke shilp men rachee gayee hain.Badhai.

16 दिसंबर 2008 को 12:31 am बजे

जीवन के सत्य का सटीक चित्रण ..........
सुन्दर भाव और सुन्दर शैली ............

धन्यवाद और शुभ कामनाएं

16 दिसंबर 2008 को 10:13 am बजे
स्वाति ने कहा…

bahut hi satik chitran....umda....

23 मार्च 2012 को 8:04 am बजे
Rajesh Kumari ने कहा…

bahut umda bhaav behtreen prastuti.

23 मार्च 2012 को 8:23 am बजे

बहुत ही सुन्दर.सार्थक .रचना...

23 मार्च 2012 को 11:44 am बजे
दीपिका रानी ने कहा…

कम शब्दों की सारगर्भित रचना

23 मार्च 2012 को 3:12 pm बजे
Mamta Bajpai ने कहा…

मन को अंदर तक छू गई ..

23 मार्च 2012 को 6:00 pm बजे