पापा,
नही चाहते थे कि
मैं भी वक्त जाया करूं
कहानी लिखूं, कोई कविता लिखूं
जबकि मेरे सामने जिन्दगी पड़ी थी
चुनौतियां थी / कैरियर था
पापा के सपने थे
पापा,
चाहते थे कि
मेरी आँखों में होना चाहिये
तड़प इंजिनियर बनने की
बस यही एक लक्ष्य होना चाहिये
मैं कहां बे-सिर पैर की बातों में उलझा रहता हूँ
पढता नही बल्कि कविता लिखता हूँ
मैने,
समझा लिया खुद को
दूर कर लिया अपने आप को
कविता से, कहानी से, किस्सों से
और जुट गया खुद को
इंजीनियर बनाने में
अपना,
कैरियर बनाने के बाद
अब फिर से सवार है वही भूत मुझपे
कोई बीस सालों बाद
अब पापा को कोई गुरेज नही
पर अब बीबी नही चाहती है कि
कोई कविता बांट लें उसके हिस्से के समय को
और मुझे यह समझ नही आता कि
मैने ऐसा क्या गुनाह किया है
सिर्फ़, दम तौड़ते विचारों को पनाह दी है
एक पहचान दी है
कोई कविता ही लिखी है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०४-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:१० रात्रि / घर
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1 comment
मैने ऐसा क्या गुनाह किया है
11 दिसंबर 2008 को 4:37 am बजेसिर्फ़, दम तौड़ते विचारों को पनाह दी है
एक पहचान दी है
कोई कविता ही लिखी है
बहुत सुंदर!
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