सारा,
सारा दिन यूँ ही गुजर जाता है
बस एक बिन्दू पर अटके हुये
और शाम होते होते
टारगेट अचीव्ह नही हुआ है
हम सारे मिलकर
एक कदम भी नही बढे है आगे से
प्रश्न लगाने लगते है
चुप्पी के ताले
सारे दिन बोलने वाली जुबान पर
सारा,
दिन तो गुजर गया
प्लान बनाने में /
काऊन्टर मेजर सोचने में /
वक्त ही नही मिला कि
काम शुरू कर पायें
और यह लो आ गई अगली सुबह
इसके,
पहले की रात की बची अंगडाईयाँ ली जाये
सुबह की उबासियों के साथ
फिर,
बुलाया गया है
कल की प्रोग्रेस डिस्कस की जायेगी
प्लान-डू-चेक-एक्शन के चक्र से गुजरते
किसी पे उतरेगा रात का गुस्सा
इतना तो तय है
अंततः,
गुस्से के शांत होते शुरुआत होगी /
कॉपियाँ खुलेगी
ब्रेन स्टार्मिंग होगी / काऊन्टर मेजर सोचा जायेगा
प्लान बनेगें / एक्शन प्लान बनेगा /
चेक किया जायेगा
इसके पहले कि
एक्शन कौन लेगा यह डिसाईड हो
दिन खत्म हो जायेगा
अगली,
सुबह फिर अंगड़ाईयाँ / उबासियाँ
बाट जोहेगीं किसी मीटिंग की
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १६-दिसम्बर-२००८ / समय : ११:२० रात्रि / घर
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8 टिप्पणियाँ
दिन का गुज़र जाना उतना बुरा नहीं ,जितना उसका ज़ाया हो जाना । वक्त तो थमता नहीं ,उसे तो बांधा जा सकता है सदुपयोग से ही ।
17 दिसंबर 2008 को 10:13 pm बजेआम भारतीय के कामकाज के तौर तरीकों को बेहद बारीकी से उकेरा है आपने । मेरी नज़र में कविता लेखन साहित्य की सबसे सुंदर लेकिन सबसे मुश्किल विधा है ।
yahi hai jindgi.
18 दिसंबर 2008 को 12:25 am बजेतिवारी जी बहुत सुंदर रचना "" सुबह होती है शाम होती है ,जिंदगी यूँ ही तमाम होती है ""
18 दिसंबर 2008 को 2:08 pm बजेमुकेशजी वैसे आपके सारे प्रश्नों का उत्तार मेरे ब्लॉग पर ही है पर उसके लिए शायद आपको मेरी सारी पोस्ट पढ़नी पडेगी जो कि शायद मुमकिन नहीं है। आपको मेरी रचना पसंद आई इसके लिए आपका सहृदय धन्यवाद। 'जान' इसलिए यह कह रही थी कि वो लगभग 45 मिनट से देहरादून की एसटीडी से मुझसे बात कर रही थी। और मैं दिल्ली में रहता हूं। और सिर्फ यही एक टाईम उसके पास होता है जब वो अपने घर से अपनी क्लास के लिए निकलती है और मुझसे एसटीडी से बात करती है। और उसी क्लास में उसकी एक कर्जन भी पढ़ती है। और अगर वो क्लास में लेट हो जाए तो वो घर पर फोन करके पूछ लेती है। इसलिए उसका क्लास में टाईम पर पहुंचना जरूरी होता है।
18 दिसंबर 2008 को 2:27 pm बजेमुकेशजी अगर आप मुझसे बात करना चाहते हैं तो आप मुझे dardkadil@gmail.com, or meradardedil@gmail.com पर ईमेल कर सकते हैं. मुझे खुशी होगी आपके साथ अपनी फीलिंग शेयर करने में.
तिवारी साहब,
18 दिसंबर 2008 को 11:14 pm बजेवर्तमान आफिसर्स ( छोटे-बड़े, सत्ता मथीश, जो भी हैं) सिर्फ़ और सिर्फ़ वही कर रहे हैं जो आपने अपनी कविता में बयां किया है , या कहें कि सार निम्न तीन पंक्तियों में है ...............
इसके पहले कि
एक्शन कौन लेगा यह डिसाईड हो
दिन खत्म हो जायेगा
यंहा मैं एक बात और जोड़ना चाहूँगा कि वास्तविक एक्शन लेने वाले कर्मचारी तृतीय या फिर चतुर्थ ग्रेड के होते हैं ऐसे में वो उच्च क्वालिटी जिसका अफसर, डिजाइनर, प्लानर सपना देखता है वो कैसे प्राप्त होगा?
चन्द्र मोहन गुप्त
बहुत अच्छे!
19 दिसंबर 2008 को 10:06 am बजेहमेशा की तरह ... बहुत सुंदर!
19 दिसंबर 2008 को 6:10 pm बजेयथार्थ को परोसती सुंदर रचना तिवारी जी बहुत बढिया
19 दिसंबर 2008 को 8:48 pm बजेएक टिप्पणी भेजें