कभी,
तो लगता है कि
मैं घर लौटता ही क्यूं हूँ
सिमटने को एक कमरे में
जिसमें भरा होता है
सामान इस कदर कि
बड़ी मुश्किल से किसी तरह खोजना होता है
अपने लिये कोई कोना
जहाँ मै फैल सकूं
कुछ देर सुकून के साथ /
बदल सकूं इंसान में
कमरे में,
सारी दुनिया फैली होती है /
करीने से सजा होता है
दिन भर का गुबार /
फूले हुये मुँह भर गुस्सा /
मेरे कद से बड़ी होती शिकायतों की फेहरिस्त /
शायद मेरा ही इंतजार करते आँसू
फिर,
मैं पहले बदलने लगता हूँ
पत्थर में
फिर दीवारों में धीरे-धीरे
जो ढूंढती हैं कंधा
छतों के सीने पर रोने के लिये
मेरे आँसू बदलने लगते हैं
छत में कैद सीलन में
जो,
दिन भर गवाही देती हैं कि
मैं कल रात था यहीं कमरे में
कुछ देर इंसान की तरह
मशीन में बदलने के पहले
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १३-फरवरी-२००९ / समय : ११;४० रात्रि / घर
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7 टिप्पणियाँ
मैं कल रात था
21 फ़रवरी 2009 को 6:18 am बजेयहीं इस कमरे में
कुछ देर इन्सान की तरह
मशीन में बदलने के पहले...
-बहुत गहरे भाव हैं आपकी रचना के. वाह!!
सच कहूं तो दिल जीत लिया आपने।तारीफ़ जितनी भी की जाए कम ही होगी।
21 फ़रवरी 2009 को 10:02 am बजेbahut gehre bhav sundar
21 फ़रवरी 2009 को 10:26 am बजेफ़ालो करें और नयी सरकारी नौकरियों की जानकारी प्राप्त करें:
21 फ़रवरी 2009 को 10:28 am बजेसरकारी नौकरियाँ
मुकेश जी,
21 फ़रवरी 2009 को 2:34 pm बजेसच कह कर दिल जीत लिया आपने.
कुछ देर सकून के साथ/
बदल सकूं इन्सान में
आभास हो रहा है कि कितना बदल गया इन्सान कि घर में भी इंसानियत दिखने के लिए उसे न तो कोना न सकून मिल रहा है.
हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
घर एक ऐसी जगह है जहां इंसान सकून तलाशता है, शिकायतें नही.
23 फ़रवरी 2009 को 5:15 pm बजेछतों के सीने पर रोने के लिये
25 फ़रवरी 2009 को 7:18 pm बजेमेरे आँसू बदलने लगते हैं
छत में कैद सीलन में
bahut sundar abhivyakti ......
in panktiyon men simta hai aapki kavita ka saar .........
meri shubhkamnaayen....
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