शाम,
जो होने को आती है
ना जाने कहां से हाथों में तेजी आ जाती है
दिनभर सुस्त सा रहना वाला ऑफिस
सिमटने लगता है फुर्ती से
जेबों से निकलने लगती है
मुड़ी-तुड़ी पर्चियाँ
तय होने लगते हैं रूट फटाफट
कंधों पर लटकने लगते है झोले
हैण्ड़बैग से बाहर आ ही जाती है थैलियाँ
किसी को लेने कोई आया है /
किसी को किसी का इंतजार है
और
घर सभी पर सवार होने लगता है
कोई,
रिव्यू नही होना है /
ना कोई प्लान था / ना कोई टारगेट है
सभी जैसे दफ्तर पहली फुर्सत में ही आये हैं
पंच / लंच और फिर पंच की क्रम में
किसे परवाह पड़ी है कि पूछे भी
कहां से चले थे सुबह और
कहां तक पहुँचे है
शाम, रंगीन है और रंगीन बनी रहे
इसलिये कोई किसी से कुछ पूछता भी नही
सरकारी,
दफ्तर है बस चलता ही रहेगा
सरका री का नारा टेबलों पर
दिखाता रहेगा असर
जब तक कुछ सरकेगा नही
कुछ भी नही सरकेगा अपनी जगह से
चाहे देश कितनी ही रफ्तार से बढ रहा हो आगे /
कार्पोरेट कल्चर झलकने लगा हो
इश्तेहारों में
सभी की घड़ियाँ दौड़ती हैं समय से तेज
सिर्फ ऑफिस में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-फरवरी-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर
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3 टिप्पणियाँ
बहुत उम्दा चित्र खींचा है, बधाई.
7 फ़रवरी 2009 को 9:24 am बजेदिनचर्या एक कविता बन पड़ी है और शब्द ख़ुश्बू बिखेर कर फूलों का रंग छल्का रहे हैं! वाह!
8 फ़रवरी 2009 को 12:52 am बजेआपकी कविता पढ़ कर लगता है मानो ज़िंदगी कविता हो गयी है बहुत सुंदर भावः सुंदर शब्द बधाई
19 फ़रवरी 2009 को 9:39 am बजेएक टिप्पणी भेजें