मैं,
डरता हूँ सच से /
बचना चाहता हूँ सामना करने से
और वह हर कोशिश करता है
मुझसे मुकाबिल होने की
सच,
से बड़ा बहरुपिया मैनें नही देखा
आज तक
हर बार मेरे सामने आता है
कुरेदता है मेरे जख्मों को
और,
फिर मेरी टीसों से झांकता है /
बहता है मवाद सा नासूर से
मैं,
डरता हूँ सच से
वह काबिज होना चाहता है
मेरे कंधो पर फिर उतर जाता है
मेरी बैसाखियों में बदल कर आवाज में
जो चीखती हैं मेरी आहट से पहले
सच,
कुछ भी नही रखता अपने पास
बख्शता नही किसी को भी
मैने बहुतेरी कोशिश की
झूठ के मेकअप से
लिखूं वो जिसे मैं कहना चाहता हूँ
आजकल,
वह मेरे आईने में उतर आता है
और
मेरी कनपटी पर लिखता है /
चेहरे पर टांकने लगता है झुर्रियाँ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-फरवरी-२००९ / समय : ११:१० रात्रि / घर
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5 टिप्पणियाँ
सच को बहुत सच्चाई से बयां किया है आपने ...काबिले तारीफ़ ...
12 फ़रवरी 2009 को 12:19 am बजेमेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
बहुत अच्छी कविताएँ कर लेते हैं!
12 फ़रवरी 2009 को 1:33 am बजे---
गुलाबी कोंपलें । चाँद, बादल और शाम
bahut sundar hai.
12 फ़रवरी 2009 को 11:14 pm बजेदुर्भाग्य से या मेरे अज्ञान से आपका लेख नहीं पढ़ पाया /रचनाकार टाईप किया तो रचनाकारों का ब्लॉग खुला और रवि रतलामी का ब्लॉग खोला तो रचनाकार न खुल पाया /खैर कल शिवपुरी जा रहा हूँ वहां कोशिश करूंगा /
13 फ़रवरी 2009 को 7:58 pm बजेवर्तमान कविता =सच से डरना या बचना आज की महती आवश्यकता हो चुकी है /बिल्कुल सही है सच जब भी सामने आएगा जख्मों को कुरेदेगा यही नहीं कुरेदकर नमक भी छिड्केगा {{ नमक मेरे जख्मों पे हंस हंस के छिड़को ,सितम भी इनायत नुमा चाहता हूँ }} झूंठ के मेकअप आप जैसे विद्वान दिल की बात लिख ही नहीं सकते
mukesh bhai
14 फ़रवरी 2009 को 11:13 am बजेbahut badiya kavita rachi aapne.Badhai ho.
mai apni baat kahta hoon.
jaane kaise log jhooth bol lete hain. maine jab bhi jhooth bola pakda gaya.
nature jo bhi swabhav ka tohfa hamen detei hai usi ke mutabik hamaare jeene mein bhlaai hai.
usi mein hamaara aanand chhupa hai.
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