मुझे,
बहुत देर लगती है
किसी ख्वाब से पीछे छुडाने में
आँख खुलने के पहले ही
छाने लगता हैं धुंध सा दिमाग पर /
दृष्टी पर छाया होता हैं
मोतियाबिंद के जाल सा
मुझे,
कई बार बदलना होता है
अपना रास्ता,
या यूँ ही भटकना होता है
सड़कों पर अजनबी सा देर तक
जब तक यह भरोसा ना हो जाये कि
मैं छोड़ आया हूँ ख्वाब को बहुत पीछे
भटकने के लिये
फिर,
पूरे रास्ते मुझे देखना होता है
मुड़-मुड़ के /
ठिठकना होता है सशंकित
ढूंढते अपनी परछाई में
चिपके हुये ख्वाब को
वह,
कहीं भी मिल जाता है
अक्सर किसी सूने से मोड़ पर तलाशता
जब मुझे यह लगने लगे कि
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
ख्वाब को
सच्चाईयों के पीछे भागते
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १०-फरवरी-२००९ / समय : १०:४५ / घर
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4 टिप्पणियाँ
बहुत बढ़िया रचना..बधाई.
19 फ़रवरी 2009 को 6:43 am बजेपूरे रास्ते मुझे देखना होता है
19 फ़रवरी 2009 को 6:06 pm बजेमुड़-मुड़ के /
ठिठकना होता है सशंकित
ढूंढते अपनी परछाई में
चिपके हुये ख्वाब को ..
क्या बात लिखी है आपने, बहुत खूब..
अपनी परछाई में
चिपके हुये ख्वाब को..
मुकेश जी ..आपके अनुभव आपकी कलम की स्याही को दृढ़ता प्रदान करते है.
बहुत खूब..
20 फ़रवरी 2009 को 9:49 pm बजेअपनी परछाई में
चिपके हुये ख्वाब को..
सुंदर और यथार्थ आपकी लेखनी मैं जादू है
वह,
3 मार्च 2009 को 11:32 am बजेकहीं भी मिल जाता है
अक्सर किसी सूने से मोड़ पर तलाशता
जब मुझे यह लगने लगे कि
मैं बहुत पीछे छोड़ आया हूँ
ख्वाब को
सच्चाईयों के पीछे भागते
आपकी लिखी कुछ कविताएं आज पढ़ी मैंने और बहुत पसंद आई ..बहुत कुछ अपने करीब लगी ..
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