माँ,
जब सपनों को झोंकती है
चूल्हे में तो रोती है झार-झार
मैं यह समझ नही पाता था
और माँ,
उम्मीदों को फूंकनी बना
आग को हवा देती थी
ना,
जाने कब रोटी का इंतजार करते
हम उनींदे से झोले खाते
तो मँ लोरी परोस देती
थपकियों के साथ
गोद में सुलाते
सुबह,
माँ घर से निकलने के पहले
हमें बताती की
रात तुम्हारी रोटी
हवा में उड़ आसमान में टंग गई है
आज रात देखना
कितनी बड़ी बनायी थी मैने तुम्हारे लिये
तबसे,
मैं जब भी देखता हूँ
आसमान में चाँद
मन उदास हो जाता है कि
कोई तो है जो आज भी
मेरे हिस्से की रोटी पर
अपना हक़ जताता है
और मेरे हिस्से में
या तो लोरियाँ आती हैं
या चाँद आता है.
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २९-दिसम्बर-२००८ / समय : रात्रि ११:५० / घर
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2 टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर।
5 फ़रवरी 2009 को 1:01 am बजेसूखा हुआ शख्स
5 फ़रवरी 2009 को 9:07 pm बजेजिस्की तकदीर समझने मे ही नहीं
दिखने से ही कमजोर लगती है..
ऎसे वीराने का किस्सा किस से सुना जाता है
सब को पता है साहेब कि उस के हिस्से में
रोटी नहीं...
चांद ही आता है...
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बहुत सुंदर अभिव्यक्ति दी...
आदर सहित..
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