एक,
मुट्ठी धूप की तलाश में
पूरी जिन्दगी गुजर गई
हथेलियाँ नही थाम पायी अपने हिस्से में आई धूप
यादों के सिलसिले सी
बस बरसती चली गई मुसलसल
स्याह नम अंधेरों में घुली हवा
बुझा रही थी आग
जहाँ भी थी / जितनी भी
गुनगुनी धूप,
जब सरकी उंगलियों की दरारों से तो दरकती हुई
फिर मिल गई चमकती धूप में
मेरे हिस्से में रह गई
गदेलियों पर मखमली तपन
और उंगलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ
जो, छांह के मरहम में
तपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०९-जून-२००९ / समय : १०:४४ / घर
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24 टिप्पणियाँ
गहरे अर्थों के साथ एक अच्छी रचना मुकेश भाई। आदरणीय रघुनाथ जी की पंक्तियाँ हैं कि-
7 जुलाई 2009 को 7:13 pm बजेजिन्हें रातों में बिस्तर के कभी दर्शन नहीं होते।
बिछाकर धूप का टुकड़ा ओढ़ अखबार सोते हैं।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
गहरे भावः लिए बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति....
7 जुलाई 2009 को 7:20 pm बजेबहुत सुन्दर रचना!!
7 जुलाई 2009 को 7:23 pm बजेउंगलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ ..
7 जुलाई 2009 को 8:05 pm बजेtivariji, bahut hi sundar tarike se vyakt ho rahi he aapki shbdo ki ye kdi...//
jis panktiyo ko mene upar vyakt kiya, vo is rachna ki sabse achhi pankti mujhe lagi he...mene apni dairy me utaar li he.
बहुत सुंदर भाव लिये हुये है यह रचना. बहुत शुभकामनाएं.
7 जुलाई 2009 को 8:08 pm बजेरामराम.
गहरे भाव लिये हुये तो है प्रस्तुति का अन्दाज तो गज़ब
7 जुलाई 2009 को 8:58 pm बजेका है..... एक मुठ्ठी धूप तो मन के कई कोनो को गुनगुना कर गयी........... बहुत ही सुन्दर रचना है आपकी ............
सादर
ओम आर्य
बहुत सुन्दर रचना मुकेश जी!बहुत गहरे भाव!
7 जुलाई 2009 को 9:11 pm बजेBahut gehre bhaav hai, bahut sundar rachana Mukesh ji ...
8 जुलाई 2009 को 12:29 am बजेDubara aaoongi padhne
जो, छांह के मरहम में
तपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं
God bless
RC
गहरे भाव से बनी है आपकी रचना........कितनी सच, अपने हिस्से की धुप को पकड़ने की चाहत...........उँगलियों के बीच से दरकती धुप.......... शब्दों को सधे तरीके से पिरोया है आपने ....लाजवाब
8 जुलाई 2009 को 1:11 am बजेबहुत खूब. सुन्दर रचना.
8 जुलाई 2009 को 8:11 am बजेगुनगुनी धूप,
8 जुलाई 2009 को 12:07 pm बजेजब सरकी उंगलियों की दरारों से तो दरकती हुई
फिर मिल गई चमकती धूप में
मेरे हिस्से में रह गई
बहुत सुन्दर लगी यह पंक्तियाँ मुकेश जी ..गलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ यह बहुत कुछ कह रही है सुन्दर अभिव्यक्ति ..
जो, छांह के मरहम में
8 जुलाई 2009 को 12:51 pm बजेतपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं
बहुत सुन्दर रचना!
आपकी कृतियों में अद्वितीय सौन्दर्य है।
8 जुलाई 2009 को 2:28 pm बजे---
नये प्रकार के ब्लैक होल की खोज संभावित
हथेलियाँ नही थाम पायी अपने हिस्से में आई धूप
8 जुलाई 2009 को 3:25 pm बजे-----
सही है मित्र। धूप तो समय है - जो जी लिया सो लिया, शेष छन गया हथेली से!
बहुत खूबसूरत रचना है आपकी...भावपूर्ण....बहुत ही अच्छी लगी...बधाई...
8 जुलाई 2009 को 6:22 pm बजेनीरज
एक और सशक्त रचना मुकेश जी आपकी कलम से...वाह!
9 जुलाई 2009 को 1:12 am बजेकितनों का सच समेटे हुये इन पंक्तियों पर सलाम
"उंगलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ
जो, छांह के मरहम में
तपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं"
bahut sundar post lagi... bas likhte rahiye............
9 जुलाई 2009 को 11:29 am बजेऔर उंगलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ
9 जुलाई 2009 को 1:11 pm बजेजो, छांह के मरहम में
तपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं
ज़िन्दगी का ये रूप.....
लाजवाब फ़लसफा !!
और उंगलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ
9 जुलाई 2009 को 2:24 pm बजेजो, छांह के मरहम में
तपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं
...क्या बात है .हथेलियों में धूप न ठहर पाए न सही तपिश की मामूली छुअन काफी होती है जीवन जीने के लिए .
prabhawshali bhawnayen........
9 जुलाई 2009 को 3:45 pm बजेBas nishabd hoon..Badhai.
9 जुलाई 2009 को 9:54 pm बजेमेरे हिस्से में रह गई
10 जुलाई 2009 को 8:45 pm बजेगदेलियों पर मखमली तपन
और उंगलियों के बीच सिसकती नाकामियाँ
जो, छांह के मरहम में
तपिश की चाह पाले हुये जल रही हैं
bahut hi sundar. badhai!!!!!
एक मुट्ठी धुप की तलाश में
11 जुलाई 2009 को 12:42 am बजेपूरी ज़िन्दगी निकल गयी
हथेलियाँ नहीं थम पाई अपने हिस्से की धुप
वाह बहुत ही लाजवाब रचना......!!
बहुत खूब....!!
अति सुन्दर
11 जुलाई 2009 को 1:57 pm बजेएक टिप्पणी भेजें