वो,
जब मुँह अंधेरे निकलते हैं
बाहर घर से
साथ होती है उम्मीदों भरी झोली
जिसमें कैद करने हैं
सारे सपनें और रोटी भी
कचरे के साथ
वो,
इस उम्र में भी सीख लेते हैं
वो सब और उन चीजों के बारे में
सभी कुछ
जिनके बारे में हमें बतियाते
अक्सर शर्म आती है
वो,
जब बिनते हैं कचरा
तो छांटते है, पहले
प्लास्टिक एकदम पहली पसंद पर
फिर पन्नियाँ / लोहा या और कुछ
इसी दौरान
उनके हाथ लगते हैं
इस्तेमाल के बाद फेंके हुये कण्डोम
कचरे के ढेर में
शायद पहली बार ठिठके होंगे
उनके हाथ उठाते हुये /
या कौतुहलवश छुआ होगा
बस,
यहीं से वो बच्चे सीखते है
कण्डोम, क्या होता है /
क्या काम आता है /
फिर वो सीखते है इस्तेमाल करना
और संस्कार हस्तांतरित होते हैं
यह,
सब सीखने के बाद
वह सीखते है कि
विकास के इस तेज दौर में भी
अभी नही ईजाद हुआ है तरीका
कण्डोम को इस्तेमाल बाद
डिस्पोज करने का
कण्डोम,
अब भी
रातों के अंधेरे में फेंके जाते है
कुछ इस तरह
जैसे कोई बच्चा उछाल देता है
पत्थर हवा में बिना किसी बात के
और यह भी नही सोचता कि
जिस आँगन में गिरेगा
वहां भी कोई बच्चा होगा
या कोई बस यूँ ही बहा देता है
फ्लश में और वह चोक किये होता है
ड्रेनेज घर से अगले मोड़ पर
या, यदि फेंका गया सड़क के उस पार
तो कचराघर को बदल देगा
जिन्दगी की पाठशाला में
और,
सीखने में मदद करेगा उन ब्च्चों की
जिनके घर नही होते
समय के पहले ही
कण्डोम क्या होता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : २४-मार्च-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर
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5 टिप्पणियाँ
कंडोम पर इतना जबरदस्त चिंतन
25 मार्च 2009 को 1:36 am बजेअब तो सरकार को ही कोई तरीका खोजना होगा
इससे निजात पाने का
वाह वाह
चिंतनीय कविता!
25 मार्च 2009 को 7:58 am बजेमन को ..झाझोरती कविता ...
25 मार्च 2009 को 2:27 pm बजेमुकेश ji,
26 मार्च 2009 को 9:22 am बजेsamaaj ke muh par tamaacha maarti hui kavita samaaj ko sudharne ko baadhy karti hai.badhaai ho sudhaarvadi vichaardhara ke liye.
एक कड़वी सच्चाई को व्यक्त करती दिल को झंझोर जाने वाली रचना है ..
27 मार्च 2009 को 4:35 pm बजेएक टिप्पणी भेजें