मैं,
जानता हूँ
तुम्हारे पास कुछ सवाल है
जो, अक्सर अनुत्तरित ही रह जाते हैं
मुट्ठी में बंद अनाज के दानों की तरह
जो सारी उम्र इंतजार ही करते रह जाते है
उनकी,
मिट्टी की तलाश पूरी ही नही होती
मैं,
यह भी जानता हूँ
कोई ऐसा अवसर नही होता
जब उनमें से ही कोई सवाल
रह-रहकर उभरता है
तुम्हारे चेहरे पर
फिर, कसमसोस कर घुट जाता है
तुम्हारे सिर झिटकने में /
या बिलावजह मुस्कराने में
मैं,
महसूस करता हूँ कि
वो सारे सवाल
जो नही कर पाये, जो जी में आया
रात को बिखरने लगते हैं
तुम्हारे तकिये पर
और तलाशते हैं वजूद अपना
तुम्हारी कुरेदी गई लकीरों में /
चादर में बुनी गई सिलवटों में /
या चबाये गये तकिये के कोने में
इसके पहले की
सुबह तुम फिर बटोर लो उन्हें
और,
गूंथ लो अपने जूड़े में
--------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १८-मार्च-२००९ / समय : १०:४० रात्रि / घर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
5 टिप्पणियाँ
बहुत सुन्दर !
18 मार्च 2009 को 11:52 pm बजेघुघूती बासूती
आपकी कविता पर की गई टिप्पणी सर्वथा अधूरी थी। जानबूझकर उतना ही कहा था। शायद अधिक इसलिए नहीं कहा क्योंकि मेरे जूड़े में भी बहुत से प्रश्न गुँथे हुए हैं, प्रश्न जो शायद सदा अनुत्तरित रहेंगे। प्रश्न जिनके उत्तरों की अब शायद आशा भी नहीं रह गई है।
19 मार्च 2009 को 11:20 pm बजेजूड़ा स्वयं ही शायद कमर कसने, साड़ी का पल्लू कमर में खोंसने की तरह सांकेतिक है। हो सकता है बिखराव को समेटने का, बहाव को रोकने का, विस्तार को समेटकर सीमित करने का या यह सब करके अपनी सीमाओं को पहचानने का।
कविता अच्छी लगी और मैंने कई बार पढ़ी। काव्य की कोई जानकारी नहीं है परन्तु जो मुझे दोबारा पढ़ने को प्रेरित करे वही मेरे लिए अच्छा है।
सबसे सरल सम्बोधन नाम का होता है। कुछ भी कहकर सम्बोधित कर सकते हैं।
वर्तनी की गल्ती के कारण पिछली टिप्पणी हटानी पड़ी।
घुघूती बासूती
निशब्द कर दिया है आपकी इस रचना ने मुझे ...सीधी सरल लफ्जों में जो बात आपने लिख दी है वह दिल में उतर गयी बहुत के दिल के करीब है यह ....एक स्त्री मन को इतनी सहजता से कैसे समझ लेते हैं आप कि वह कविता के रूप में यहाँ उतर जाती है ..बहुत सुन्दर ..बहुत बहुत बढ़िया ...संजो के रखने लायक ...
21 मार्च 2009 को 12:43 pm बजेतुम्हारी कुरेदी गयी लकीरों में
22 मार्च 2009 को 8:57 am बजेचादर में बुनी गयी सिलवटों में
या चबाये गए तकिये के कोने में
इससे पहले कि
सुबह तुम फिर बटर लो उन्हें
और
गूँथ लो जुड़े में ........
मकेश जी बेहतरीन रचना .......बहोत सुंदर .... बहोत खूब .....!!
एक टिप्पणी भेजें