तुम,
कैसे बदल लेती हो
सुने गये तानों को /
मिले हुये उलहानों को
तपन में
और पी लेती हो
फिर,
तुम बदलती हो
आग को पानी में
और,
जमा कर लेती हो
आँखों में
फिर,
तुम बनाती हो
रास्ता,
दिल से आँखों तक
कानों के बारास्ता
कि,
जो भी कचोटता है
तुम्हें
बस,
छलकने लगता है
आँखों से
और ढलकने लगती है
पानी में बदली हुई आग
गालों पर
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : १२-मार्च-२००९ / समय : १०:४५ रात्रि / घर
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6 टिप्पणियाँ
कि,
14 मार्च 2009 को 1:43 pm बजेजो भी कचोटता है
तुम्हें
बस,
छलकने लगता है
आँखों से
और ढलकने लगती है
पानी में बदली हुई आग
गालों पर
वैसे आग को पानी मे बदल कर आँखों के रास्ते बहा देने वाला स्त्री का यह चरित्र अब बहुत कुछ बदलता जा रहा है. किन्तु स्त्री के उस चरित्र को समर्पित इन पँकित्यों को पढ़वाने के लिये आपको धन्यवाद
प्रिय तिवारी जी /विगत २० दिन बहुत उलझन और परेशानी में बीते /आपने जो कविता में भावः व्यक्त किये हैउसमें एक महिला की परेशानी ,विवशता ,सहनशीलता ,गंभीरता सबका समुच्चय है ,जैसे एक एक कली चुन कर किसी ने माला गूँथ दी हो /ये तो नहीं कह सकता कि आपकी अभी तक की रचनाओं में यह सर्वश्रेष्ठ रचना है क्यों क्योंकि आपके सभी रचनाये श्रेष्ठ है /ऐसी गंभीर रचना के लिए हार्दिक वधाई
15 मार्च 2009 को 1:52 pm बजेbahut bahut badhai aapko..bahut sunder rachna likhi hai aapne
16 मार्च 2009 को 3:04 pm बजेएक औरत दिल को इतने अच्छे से समझना और फिर उस पीडा को इतने सुन्दर लफ्जों में ढाल देना बहुत दिल को भाया कई बार यह आंसू यह दर्द अपनी बात कहने का और भी जरिए तलाश करता है ...पर आंसू तो यूँ अपनी बात कह ही जाते हैं ..सुन्दर अभिव्यक्ति
16 मार्च 2009 को 7:32 pm बजेसिर्फ दो शब्द " बहुत सुंदर"....
19 मार्च 2009 को 5:50 pm बजेकहाँ तो आप एक अलग ही ढंग से श्रृगार रस का दर्शन करा रहे है है......
सुर दूसरी ही तरफ,अपने मधुर वाक्यों से नारी के एक रूप का गुणगान कर रहे है .....बहुत अच्छे
दिनेश राय जी, हरकीरत जी, रंजू जी सहित प्रायः सभी के गंभीर चिंतन जागरूकता एवं पहल की ओर इशारा है.
27 मार्च 2009 को 12:22 am बजे- विजय
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