वो,
तंग सी गलियों में ही कहीं रहती है
गुम सी
होठों को सिले हुये /
सपनों की पैबंद दामन पर टांके
जिन्दगी की उधड़न को
सफाई से करती तुरपई
जैसे,
उसे खुद ही सिमट आना हो
सिकुड़्ते हुये परछाईयों की तरह
पकड़ते हुये उलझनों को
छोड़ती जाती है जिन्दगी /
या वो बातें जो अहम हो सकती है
जिन्दा रहने से भी
वो,
उन्हीं तंग / सीलती गलियों में
किसी दिन हो जाना चाहती है
गुम सदा के लिये
जैसे, बड़ी / चौड़ी सड़कें गुम हो आई थी
शहर के माथे से
और एक दिन बदल गई थी तंग गलियों में
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-जनवरी-२००९ / समय : १०:२५ रात्रि / घर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
1 comment
वह सुबह जल्दि ही आएगी
11 जनवरी 2009 को 7:40 pm बजेजब तंग गलियां बदल जाएंगीं सुहानी सडकों में
जब सीलन से भरी कोठरियां
महकेगीं अपनेपन की सुगंध से
रोशन होगा हर कोना
और मुस्कुराहट आएगी चेहरे पर ।
एक टिप्पणी भेजें