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तंग सी गलियों में

शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

वो,
तंग सी गलियों में ही कहीं रहती है
गुम सी
होठों को सिले हुये /
सपनों की पैबंद दामन पर टांके
जिन्दगी की उधड़न को
सफाई से करती तुरपई

जैसे,
उसे खुद ही सिमट आना हो
सिकुड़्ते हुये परछाईयों की तरह
पकड़ते हुये उलझनों को
छोड़ती जाती है जिन्दगी /
या वो बातें जो अहम हो सकती है
जिन्दा रहने से भी

वो,
उन्हीं तंग / सीलती गलियों में
किसी दिन हो जाना चाहती है
गुम सदा के लिये
जैसे, बड़ी / चौड़ी सड़कें गुम हो आई थी
शहर के माथे से
और एक दिन बदल गई थी तंग गलियों में
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०७-जनवरी-२००९ / समय : १०:२५ रात्रि / घर

1 comment

Atul Sharma ने कहा…

वह सुबह जल्दि ही आएगी
जब तंग गलियां बदल जाएंगीं सुहानी सडकों में
जब सीलन से भरी कोठरियां
महकेगीं अपनेपन की सुगंध से
रोशन होगा हर कोना
और मुस्‍कुराहट आएगी चेहरे पर ।

11 जनवरी 2009 को 7:40 pm बजे