मैं,
रात के कच्चे और अधूरे ख्वाबों की
पोटली बना
जब सुबह को सूरज का इंतजार था
निकल पडा़ था
अपनी कुल्हाड़ी लिये
मैं,
चीर लेना चाहता था
अपने हिस्से का सूरज
वहीं,
जहाँ वह छोड़ता है जमीन की दहलीज को
और उठता चला जाता है
आसमान में
मैं,
पका लेना चाहता था
अपने ख्वाबों को
सूरज की आँच में /
अपने हिस्से की आग से
और लौटना देर रात
ख्वाबों को बदल कर बीज में
बोना चाहता था दिन के सीने पर
मैं,
देखना चाहता था
ख्वाब बदल कर तारों में
चमकते हैं मेरे हिस्से के दिन में
और
मैं छोड़ देता हूँ डरना
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०२-जनवरी-२००९ / समय : रात्रि ११:१० / घर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियाँ
ब्लॉग की tasweer बदल दी /adhoore सपनों की potlee /surya की aanch में sapno को pakana /uttm bhav
3 जनवरी 2009 को 1:59 pm बजेसुंदर भावाभिव्यक्ति के लिये साधुवाद स्वीकारें
3 जनवरी 2009 को 8:13 pm बजेरही बात छिनाल शब्द के प्रयोग की तो एकाध दिन में अपने दूसरे ब्लाग हरियाणा एक्सप्रैस पर इसका उत्तर दूंगा
एक टिप्पणी भेजें