मैं,
ढूंढ्ता हूँ कोई ना कोई मौका
जब भी मिले घर से बाहर निकलने का
कुछ देर खुली हवा में सांस लेने का
घर,
में तंग करती हैं दीवारें
दीवारों के बीच पल रहे दायरे
खिड़कियाँ जो
दरवाजों सी बंद हो जाती हैं
हर कमरे में बसा होता है अंधेरा
रिश्तों में लगी होती है सीलन
तब,
बाहर निकलते ही घर
सवार हो जाता है मेरे स्कूटर पर
कान पर बस बजता ही चला जाता है
बिना रुके
जैसा घाटियो में गूंजता है संगीत
या कोई अनचाहा गीत
और,
मैं तंग आकर फिर लौट आता हूँ
घर
पसर जाना चाहता हूँ
घर के खालीपन में
उन्ही दीवारों में तलाशता
अपना वजूद
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जनवरी-२००९ / समय : ११:१५ रात्रि / घर
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3 टिप्पणियाँ
बहुत खूब.
7 जनवरी 2009 को 4:59 pm बजेअच्छी रचना के लिए धन्यवाद
.
सुंदर रचना है. मुझे अन्तिम छंद सबसे प्रभावी लगा, बधाई!
7 जनवरी 2009 को 6:33 pm बजेमुकेश जी... बहुत खूबी से जीवन के एकांत का चित्रण किया है, शब्दों की माला को एक तेज धार बना कर फिर वापिस अपने ऊपर ही वार करना, वो भी इतनी महारत से कि खुद्कुशी का इल्जाम भी ना लगे और अपने अंदर की भड़ास को ब्लाग पर भी उडेल दिया जाये... कमाल की लेखनी है..
7 जनवरी 2009 को 6:42 pm बजेआपने इससे पहले आदमी के बंटने को भी बखूबी दर्शाया... यकीनन हम कभी इन्सान तो बन ही नहीं पाते... बस एक दूसरे के प्रतिनिधी ही बन के रह जाते हैं और वैसे ही चले जाते हैं...
आदर सहित
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