कल ०५ जून विश्व पर्यावरण दिवस है, खूब शोर होगा, अपीले होंगी, पौधे रोपे जायेंगे, तस्वीरे खिंचेगी लोग जबरिया मुस्कुराते हुये न जाने क्या भाषण पेलेंगे और हो जायेगा इस बार भी पर्यावरण दिवस..........
चिडियों,
ने जब बदल लिया हो
अपना आशियाना /
छांव ने तलाश लिया हो
कोई और ठौर /
न किसी डाल पे
कोई झूलते याद करता हो किसी को /
न तले गुड़गुड़ाते हों हुक्का बूढ़े
सुबह से शाम तक
पेड़,
तब भी नही सुखाता
पेड़,
जब सूखता है तो,
केवल पत्ते नही झरते,
न ही दरारें झाँकने लगती है डालों से
या उसके तने को ठोंककर पूछा जा सकता हो हाल
जब,
जड़ों में सूखने लगती है
आशा की नमी
कि, किसी शाम
कोई गायेगा गीत जी भरके /
कोई रोयेगा बुक्का भरके /
कोई सुखायेगा पसीना
पेड़ सूख जाता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : १६-अप्रैल-२०१० / समय : ०८:१० रात्रि / ऑफिस से लौटते
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21 टिप्पणियाँ
कविता में सजीवता है
4 जून 2010 को 9:16 pm बजेजड़ों में सूखने लगती है
4 जून 2010 को 9:23 pm बजेआशा की नमी
कि, किसी शाम
कोई गायेगा गीत जी भरके /
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आशा की यह नमी
शायद इसी की है कमी
वरना क्या कमी थी कि
बंजर हो गयी यह जमीं
क समसामयिक और सार्थक भाव की रचना मुकेश भाई। बहुत दिनों के बाद आपकी गली में आ पाया हूँ।
4 जून 2010 को 9:31 pm बजेआगे बढ़ी है दुनिया मौसम बदल रहा है
बदेले सुमन का जीवन इक ऐसा पहर होता
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
Haan..yah sab tamasha hoga..chhaya dena gunah hai,uski saza pedon ko milti rahegi..
4 जून 2010 को 10:26 pm बजेऔर आपसे माफ़ी चाहता हूँ.... आजकल मसरूफ़ियत इतनी है कि "Nature's call' भी नहीं कर पाता हूँ..... बाई द वे.... मेरा नम्बर वही है.... बस एक ब्लैकबेरी का मोबाइल लिया नया तो आपका नंबर गायब हो गया.... है.... प्लीज़ अपना नंबर मेल कर दीजिये..... समसामयिक और सार्थक भाव की रचना ....
4 जून 2010 को 11:10 pm बजेसमसामयिक और सार्थक भाव की रचना ........
4 जून 2010 को 11:10 pm बजेबहुत उम्दा रचना...
5 जून 2010 को 5:47 am बजेआदमी और जंगल
5 जून 2010 को 7:03 am बजेसाथ रहते थे तब
और तब तक हरा रहा आदमी
आदमी जंगली रहा
तब तक सब ठीक रहा
आदमी जंगल से निकल आया
और बाहर आकर
उसने कंक्रीट के जंगल बनाए
और
फिर सूख गया
सुन्दर रचना। पेड़ की हिलती पत्तियों सरीखी।
5 जून 2010 को 8:33 am बजेबढ़िया तिवारी साहब, आज के अखबारों में तो दुनिया को हराभरा बनाने में हिंदुस्तान को अब्बल बताया गया है !
5 जून 2010 को 9:59 am बजेPrayawaran Diwas par sajag post ke liye haardik shubhkamnayne
5 जून 2010 को 11:23 am बजेपेड़ को केवल यह अहसास होने दीजिये कि हम उसकी चिंता करते हैं, पेड़ नहीं सूखेगा.
5 जून 2010 को 1:17 pm बजेअगर हम आजके दिन भी सचमुच पर्यावरण के प्रति गम्भीर हो जाएं, तो भी इस धरती का बहुत भला हो सकता है।
5 जून 2010 को 1:57 pm बजे--------
रूपसियों सजना संवरना छोड़ दो?
मंत्रो के द्वारा क्या-क्या चीज़ नहीं पैदा की जा सकती?
पेंड़ जब सूखता है तो जड़ों में सूखने लगती है आशा की नमी..!
5 जून 2010 को 11:04 pm बजे...वाह! इसी तरह खाद-पानी देते रहिए ताकि जीवित रहे आशा की संभावना.
aapne hmaare samy ke samooche sch ko rekhankit kiyr hai . ek lekhkeey daayitw ko pooraa kiya hai . badhaaee
6 जून 2010 को 12:11 pm बजेसामयिक और उम्दा रचना...
9 जून 2010 को 2:56 pm बजेबहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ा बहुत सी रचनाये हैं जो पढने से चुक गयी थी मैं ..अभी सब पढ़ी ऐसे लगा जैसे इन्द्रधनुष के कई रंग बिखर गए लफ़्ज़ों में ..हर रचना अपने अलग मिजाज से अपनी बात कहती है ...सभी बहुत पसंद आई ..देर से पढने के लिए माफ़ी
9 जून 2010 को 6:44 pm बजेदरख़्त के दर्द के माध्यम से पर्यावरण दिवस को मानाने के ढंग पर अद्भुत कटाक्ष.
12 जून 2010 को 11:18 am बजेहार्दिक बधाई के पात्र............
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
काश पेड़ कभी न सूखते..
13 जून 2010 को 7:08 am बजेअच्छी प्रस्तुति........बधाई.....
13 जून 2010 को 10:20 am बजेभाई,
14 जून 2010 को 12:24 pm बजेअब तो सीमेंट और फायबर के नकली पेड़ ही चौराहों पर नज़र आते हैं जिनके नीचे न तो कोई बैठ सकता है और न ही कोई अपने दर्द बाँट सकता है।
अपने समय के यथार्थ को भोगती / ढोती भावना भरी कविता।
जीतेन्द्र चौहान
संपादक-गुंजन
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