मेरी,
कुछ अपनी क्षमता थी /
कुछ अपना नज़रिया /
और कुछ आकलन
तुमसे जुड़ने के बाद मुझे लगा था कि
मैं,
कर पाऊंगा विस्तार अपनी सीमाओं का
और व्यापक / पैनी / समग्र
तुम
मेरे विचारों को मार रहे हो
गर्भ में ही
जहाँ वो आकार लेते रहे थे
और
अपने नज़रिये को थोप रहे हो
मैं,
यह महसूस कर रहा हूँ कि
कोई बदल रहा है किसी मशीन में मुझे
न कोई विचार आते हैं कोई /
न स्पंदन होता है /
न नज़रिया बचा है
तुम भी,
शायद उन ऊँचाईयों से
उतना ही देख पा रहे हो
जितना कि देख सकते थे
उसके आगे तुम्हारी दुनिया सिमट रही है
और,
जहाँ मैं मदद कर सकता था
अपने नज़रिये से
क्षितिज को पीछे धकेलने में
कि बढ़ा सकें दुनिया अपने हिस्से की
मैं भी उतना ही देख पा रहा हूँ
जितना कि तुम
-------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : २७-जनवरी-२०१० / ऑफिस / समय ०१:३० दोपहर
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21 टिप्पणियाँ
bahut sundar.
27 जनवरी 2010 को 3:58 pm बजे"मैं भी उतना ही देख पा रहा हूँ
27 जनवरी 2010 को 5:04 pm बजेजितना कि तुम"
दूर की सोच - गहरी और प्रभावशाली.
बंधुवर,
27 जनवरी 2010 को 5:21 pm बजेआप जिस तंत्र से बंधे हैं, वहाँ तो कविता के स्फुल्लिंग छिटक कर आपको अनायास मिल जाते है ! ये बौखलाहट तो कवि की कलम से बोलेगी ही :
'तुम
मेरे विचारों को मार रहे हो
गर्भ में ही
जहाँ वो आकार लेते रहे थे...'
और ये कि--
'यह महसूस कर रहा हूँ कि
कोई बदल रहा है किसी मशीन में मुझे...'
शमशेरबहादुर सिंह कि कविता-पुस्तक याद आयी है-- 'बात बोलेगी' . सो, बोल पड़ी है आपकी इस कविता में ! चीखने में तो गला खर्च करना पड़ेगा बन्धु ! सार्थक अर्थ-अभिप्राय संप्रेषित करती कविता ! साधू-साधु !!
बिटिया वाली कविता इसलिए नहीं भेजी कि ३०-३१ जनवरी तो पास आ गई है; आप भी पास आ जाएँ तो रू-ब-रू सूना दूँ ! कब आ रहे हैं ? लिखें !
आज ब्लॉग पर पिताजी कि एक रचना पोस्ट कि है, चाहता हूँ, उसे आप अवश्य पढ़ें !
सप्रीत--आ.
बेहतरीन रचना प्रस्तुति .... आभार
27 जनवरी 2010 को 5:24 pm बजेप्रभावी रचना है .......... विचारों की उथल पुथल में बुनी रचना .........
27 जनवरी 2010 को 5:32 pm बजेमैं भी उतना ही देख पा रहा हूँ
27 जनवरी 2010 को 5:33 pm बजेजितना कि तुम
Har kiseee kee apnee maryada hoti hai! Saral,sahaj shabdon me aapne apnee baat kahee...
behatreen.
27 जनवरी 2010 को 6:07 pm बजेjindagi shbdo me khelti he, sochati he,chintan karti he.., tiwariji, anubhav aour jeevan ko dekhane ke apne gambhir dhang se janmi he rachna, vese aapki kalam se ese hi shbdo ki dhaar bahati he jisame jeevan saamne khada dikhataa he.
जीवन की अभिव्यक्ति का सच।
27 जनवरी 2010 को 9:24 pm बजेअपना अपना नजरिया और उससे जुदा क्षितिज इस को बखूबी आपने लफ़्ज़ों में पिरोया है ...सबसे बेहतरीन पंक्तियाँ लगी यह तुम
28 जनवरी 2010 को 6:21 pm बजेमेरे विचारों को मार रहे हो
गर्भ में ही
जहाँ वो आकार लेते रहे थे
और
अपने नज़रिये को थोप रहे हो
मैं,
यह महसूस कर रहा हूँ कि
कोई बदल रहा है किसी मशीन में मुझे
न कोई विचार आते हैं कोई /
न स्पंदन होता है /
न नज़रिया बचा है इस में जो सच है वह सब कुछ ब्यान कर देता है शुक्रिया मुकेश जी ..बेहतरीन
सुन्दर रचना. क्या करें अपनी-अपनी सीमाएं हैं.
29 जनवरी 2010 को 1:46 am बजेबेहद सशक्त रचना ! आभार ।
30 जनवरी 2010 को 1:56 pm बजेRachana itnee sundar hai,ki, baar,baar padhne ka man karta hai!
1 फ़रवरी 2010 को 8:02 pm बजेअच्छी रचना
2 फ़रवरी 2010 को 10:10 pm बजेअपनी अपनी सीमाए और इनसे घिरा इंसान..बहुत गहरी सोच के साथ बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति है..बेहद सुन्दर कविता
10 फ़रवरी 2010 को 8:50 pm बजेbahut pyari sir :)
15 फ़रवरी 2010 को 1:04 am बजेयह तो बंधन की छटपटाहट है. मेरा तो मानना है कि विचार गर्भ में नहीं मरते ...सिर्फ प्रतीत होते हैं कि मर रहे हैं...ये वो बीज हैं जो हवा-पानी पा कर कब अंकुरित हो जायं कहा नहीं जा सकता.
16 फ़रवरी 2010 को 7:39 pm बजे..सोचने कि लिए विवश करती इस कविता में आकार ढहर सा गया. बहुत अच्छी कविता है.
...प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!
21 फ़रवरी 2010 को 10:18 pm बजेPhir ek baar aapki rachname naye mayne nazar aa gaye!
23 फ़रवरी 2010 को 9:14 pm बजेhamesha ki tarah ... bahut bahut sundar ..
27 फ़रवरी 2010 को 10:57 am बजेहोली और मिलाद उन नबी की शुभकामनायें कबूल करें !
27 फ़रवरी 2010 को 8:57 pm बजे.सोचने कि लिए विवश करती इस कविता में आकार ढहर सा गया. बहुत अच्छी कविता है.
16 अप्रैल 2010 को 6:23 am बजेएक टिप्पणी भेजें