हवा,
जिसे हम महसूस कर लेते हैं
बहते हुये /
शरीर को छूकर गुजरते हुये
या कभी सूखते हुये पसीने की ठण्डक में
ना,
तो मैंने उसे देखा है
ना ही आपने देखा होगा
वही हवा,
जब भर जाती है इन्सान में
तो नज़र आती है
उनकी बातों में
जो ज़मीन के ऊपर ही उतराते हुये
ना किसी के दिमाग में जाती हैं /
ना काम आती हैं
अलबत्ता,
हम जरूर देख पाते हैं इन्सान को
हवा में तैरते हुये
चारदीवारी में कैद ज़मीन से कटा हुआ
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०६-जनवरी-२०१० / समय : ०५:०० शाम / ऑफिस
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21 टिप्पणियाँ
बहुत ही भावपूर्ण रचना ....धन्यवाद मुकेश जी
6 जनवरी 2010 को 8:06 pm बजेLAJAWAAB ........ SACH MEIN INSAAN HAVA MEIN TAIRTE HAIN JAB PAISE KI, SATTA KI HAVA BHARTI HAI ...
6 जनवरी 2010 को 8:42 pm बजेBAHUT ACHEE BHAAV LIYE KAVITA ...
बहुत गहरी एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति!
6 जनवरी 2010 को 9:11 pm बजेअलबत्ता,
6 जनवरी 2010 को 9:20 pm बजेहम जरूर देख पाते हैं इन्सान को
हवा में तैरते हुये
चारदीवारी में कैद ज़मीन से कटा हुआ
इंसान में जब हवा भर जाये तो कुछ ऐसा ही होता है और फिर चारदीवारी में कैद होने पर तथा जमीन से कटे होने पर तो और भी ----
बहुत खूबसूरत रचना
चारदीवारी में कैद ज़मीन से कटा हुआ ...
6 जनवरी 2010 को 9:58 pm बजेEeshwar na kare, aisee kiseekee qismat ho! Kitna bhayawah lagta hai..
बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति !!
7 जनवरी 2010 को 12:16 am बजेएक लम्बा अंतराल हो गया था आपकी नयी कविता का घूंट भरे हुए..
7 जनवरी 2010 को 12:44 am बजेऔर एक नया रंग समेते हुए लगी आपकी कविता..
इन्सान रूपी अहम के इस गुब्बारे मे भरी हवा भी गर्म होती है..और उसे इधर-उधर नचाये फिरती है उस उंचाई पर जहाँ से अपने कद वाले ही बहुत छोटे नजर आते हैं.बस वक्त के एक सुई चुभाने की देर होती है कि फिर उसीए जमीन की कैद मे आ जाता है कटी जड़ों वाला आदमी.
ओह ... बहुत खूब ... बहुत ही बढ़िया ! जैसे पढना शुरू किया, बस पढ़ती गयी .. अचंभित सी ! ख़ूबसूरत शुरुआत और बेहद सटीकता से धीरे धीरे फूल की तरह खिलती है कविता |
7 जनवरी 2010 को 1:16 am बजेबहुत गहरे भाव, गहरी समझ और किस खूबसूरती से भावों को शब्दों में ढाला है !
मेरे लिए यह कविता आपका एक मास्टरपीस है !
God bless
RC
जमीन से कटा आदमी ना घर का ना घाट का ...!!
7 जनवरी 2010 को 7:43 am बजेसच को उजागर करती है आपकी यह खुबसूरत भावपूर्ण रचना ....आज का इंसान ऐसा ही हो गया है ...वही हवा,
7 जनवरी 2010 को 11:22 am बजेजब भर जाती है इन्सान में
तो नज़र आती है
उनकी बातों में....इस तरह के कई लोग अपने आस पास दिख जायेंगे ...संजो के रखने लायक है आपकी यह रचना मुकेश जी ...शुक्रिया
गहरी भावमय कविता है शुभकामनायें
7 जनवरी 2010 को 11:58 am बजेबहुत अच्छी प्रस्तुती एक बार पढ़ी ...फिर दुबारा पढ़ी ...दिल को अन्दर तक छू गयी और साथ ही एक बहुत बेहतरीन शेर याद आ गया. मेरा नहीं है
7 जनवरी 2010 को 1:00 pm बजे"कितने कमज़र्फ होते हैं गुब्बारे
चाँद सांसों में फूल जाते हैं
जब कमीने उरूज़ पाते हैं
अपनी औकात भूल जाते हैं "
सादर रचना
धड़ में भरे तो ठीक। वह हवाभर जाती है दिमाग में और बदल देती है पूरा व्यक्तित्व। :)
7 जनवरी 2010 को 3:17 pm बजेwaaaaaaaaaaaaaah,
7 जनवरी 2010 को 5:27 pm बजेbahut khoob. zameen se kataa huaa aadami.bhavo ko abhivyakt kar dena vo bhi itani sarltaa se aap khoob jaante he.., koi zameen se judaa huaa hi esa likh saktaa he.
हवा को लेकर आपका ये नया अंदाज़ अच्छा लगा । सटीक ।
7 जनवरी 2010 को 7:22 pm बजेGajab ka bhav..itni sarlata se ki hawa ki viralta ko bhi ahsas nahi mahsus hogaa...great bhai Mukesh..yuhi hi chamakte raho...geet likho bhai
8 जनवरी 2010 को 4:30 pm बजेबहुत प्रभावी अभिव्यक्ति है।
14 जनवरी 2010 को 9:49 pm बजेहवा में तैरते हुये
चारदीवारी में कैद ज़मीन से कटा हुआ
बहुत सुन्दर।
बधाई!
आदरणीय मुकेश जी,
अन्यथा न लें तो एक बात कहूँ। ’ना’ की जगह ’न’ लिखें तो कैसा रहेगा। अपरिहार्य न हो तो यह प्रयोग दोषपूर्ण माना जाता है।
सदभाव एवं शुभकामनाओं सहित
अमित
As you have mentioned about AIR, same way is the presence of GOD, but as we need FAN to feel the air.. we need Master to feel the GOD :)...
18 जनवरी 2010 को 11:26 am बजेIt was a good one.
regards
Naveen
बिल्कुल ठीक है तिवारी जब यह इन्सान के दिमाग मे भर जाती है तो वो ही हाल होता है कि ""बात अब करते हैं कतरे भी समंदर की तरह""
19 जनवरी 2010 को 7:40 pm बजेबहुत दिनों बाद पढ़ रहा हूँ आपकी कविता ।
21 जनवरी 2010 को 7:16 am बजेआपकी कविता की मौलिक जरूरत पूरी हो रही है इस मन के लिये ।
बेहतरीन !
kafi achchi lagi.
27 अप्रैल 2010 को 12:49 pm बजेएक टिप्पणी भेजें