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आग, के साथ रहते हुये

शुक्रवार, 5 मार्च 2010

आग,

जब छटपटा रही थी
पत्त्थरों में कैद
तब आदमी अपने तलुओं में महसूस करता था
जलन / खुजली
और मान लेता था आग को
आग होने के लिये


जिस दिन,
आग ने दहलीज लांघी
हवा से आवारापन सीखा
उतर आयी आदमी की जिन्दगी में
तब से आदमी नही जानता है कि
क्यों उसकी बगलों में बढ़ते हैं बाल?
क्यों उसके पसीने से आती है बू?
क्यों उसकी आँखों में नही ठहरते हैं सपनें?
क्यों उसे सूरज की रोशनी में होती है घुटन?
लेकिन वह तपन अब भी महसूस करता है


हालांकि,
अब वह पहचानता है आग को
उसके नाम से
लेकिन,
अब भी यह नही समझ पाया है कि
उसके साथ रहते हुये भी कि
वह क्यों मौजूद है?
उसकी जिन्दगी में अपनी सारी तपन के साथ
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०४-मार्च-२०१० / समय : रात्रि ११:२९ / घर

15 टिप्पणियाँ

"जिस दिन,
आग ने दहलीज़ लांघी....
हवा से आवारापन... "
भाई तिवारीजी, लम्बे विराम के बाद आपकी कविता पर नज़र पड़ी... आप्यायित हुआ ! कविता इतना कुछ कहती है की सूत्र पकड़ने में वक़्त लग रहा है और प्रथम टिप्पणीकार का तगमा पहनने हसरत व्यग्र कर रही है ! इन पंक्तियों को पोस्ट कर दूँ, तो फिर से पढूं 'आग' को... महसूस करूँ ... !
होली का राम-सलाम भी रह गया इस बार !
सप्रीत--आ.

5 मार्च 2010 को 4:51 pm बजे

पुनः :
भाई तिवारीजी,
तगमा पहनने 'की' हसरत---पंक्ति में 'की' छूट गया है, जोड़ लें बन्धु !
सप्रीत--आ.

5 मार्च 2010 को 4:55 pm बजे
Mithilesh dubey ने कहा…

तिवारी सर जी बहुत दिंनो बाद दर्शन दिए आपने , वापसी लाजवाब रही ।

5 मार्च 2010 को 5:07 pm बजे
Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

आत्ममंथन करती हुई यह कविता पसंद आई

5 मार्च 2010 को 5:17 pm बजे
kshama ने कहा…

Harek shabd,harek pankti maynese ladee huee hai!

5 मार्च 2010 को 5:34 pm बजे
M VERMA ने कहा…

आग,
जब छटपटा रही थी
पत्त्थरों में कैद
तब आदमी अपने तलुओं में महसूस करता था
जलन / खुजली
और मान लेता था आग को
आग होने के लिये
आग फिर भी थी, आग आज भी है और शायद आगे भी रहेगी पर इसके मायने इसकी तंज, इसकी ज्वाला की दहक बदलती रही.
सुन्दर आगमय कविता
नमस्कार आपको

5 मार्च 2010 को 5:59 pm बजे
मनोज कुमार ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 06.03.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह ०६ बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/

5 मार्च 2010 को 6:44 pm बजे
शरद कोकास ने कहा…

अच्छी कविता है मुकेश जी । लिखते रहिये। शुभकामनायें ।

5 मार्च 2010 को 11:59 pm बजे

जिस दिन,
आग ने दहलीज़ लांघी....
बहुत गहरी रचना .. भावों को बहुत अच्छे से अभिव्यक्त किया है आपने ...

7 मार्च 2010 को 12:25 pm बजे

हालांकि,
अब वह पहचानता है आग को
उसके नाम से
लेकिन,
अब भी यह नही समझ पाया है कि
उसके साथ रहते हुये भी कि
वह क्यों मौजूद है?
उसकी जिन्दगी में अपनी सारी तपन के साथ

वाह, शानदार लाईन्स.. और एक बहुत ही अच्छी सोच..

15 मार्च 2010 को 9:31 am बजे

एक महीने से आपकी चुप्पी अब रहस्यमयी होती जा रही है ! जी. मेल पर भेजी गई मेरी चिट्ठी भी अनुत्तरित रह गई ! अब चिंता हो रही है ! अपना कुशल-क्षेम दें ! aadesh nahin, anugrah !!
सप्रीत--आ.

4 अप्रैल 2010 को 1:09 am बजे
Rajeev Nandan Dwivedi kahdoji ने कहा…

लीजिये हम तो झुलस गए. :)

11 अप्रैल 2010 को 12:32 pm बजे

उसकी जिन्दगी में अपनी सारी तपन के साथ

वाह, शानदार लाईन्स.. और एक बहुत ही अच्छी सोच..

16 अप्रैल 2010 को 6:19 am बजे

हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

16 अप्रैल 2010 को 6:22 am बजे