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छांव के पैबंद

गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

खजूर,

सीधे, तने हुये धरती के सीने पर

या मुड़े हुये बेतरतीब अलसाये से

जब भी मैनें देखा उन्हें

उनींदे अधूरे ख्वाबों सा लगे

आसमानी बुलंदी को छूने के पहले /

ठिठके हुये हौंसले से

जलती दुपहरी में छांव के पैबंद से लगे



जब से,

ख्वाब जागने लगे हैं रातों में

बैचेनियाँ सवार हो आई हैं नींद पर

आदमी उलझकर कंघी में टूट रहा है जड़ों से

और फेंका जा रहा है

शहरों में कूड़े के साथ



खजूर,

अब नही दिखाई देता है

खेतों की मेड़ पर / ताल के किनारें

गाँव के मुहाने पर / खपरैले घरों में

बदले हुये चटाईयों में

डुलिया में / छबड़ियों में / सूपे में

या झाडूओं में

सभी जगह उग रही हैं

गाजर घांस

ना आदमी में कुछ बचा

ना खजूर में

दोनों ही नज़र नही आते

--------------------------

मुकेश कुमार तिवारी

दिनाँक : २८-ऑक्टोबर-२००९ / समय : ११:०९ रात्रि / घर

24 टिप्पणियाँ

जब से,

ख्वाब जागने लगे हैं रातों में

बैचेनियाँ सवार हो आई हैं नींद पर

आदमी उलझकर कंघी में टूट रहा है जड़ों से

और फेंका जा रहा है

शहरों में कूड़े के साथ

wah! bahut khoob.....


yeh panktiyan achchi lagin....

29 अक्तूबर 2009 को 7:55 pm बजे
Udan Tashtari ने कहा…

बाह तिवारी जी.

आनन्द आ गया इस गहरी रचना को पढ़कर.

29 अक्तूबर 2009 को 8:05 pm बजे
M VERMA ने कहा…

ना आदमी में कुछ बचा
ना खजूर में
दोनों ही नज़र नही आते
आदमियों के भीड मे कुछ तो बचे है जिन्हें यह एहसास है कि आदमियो से बहुत कुछ चुकता जा रहा है.
मुकेश जी रचना बहुत गहराई से बेध रही है.

29 अक्तूबर 2009 को 8:14 pm बजे

मुकेश जी
बहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना .... बधाई.

29 अक्तूबर 2009 को 9:26 pm बजे

sach ki tasweer, jiti-jagti bangi , mann ko jhakjhor gai

29 अक्तूबर 2009 को 10:24 pm बजे
kshama ने कहा…

"जैसे पेड़ खजूर का , छाया नही पथिक को फल लागे अति दूर .." ये कहावत तो बरसों सूनी ...लेकिन इस पेड़ से एक छाया नही अन्य कितने उपयोग हैं , ये किसी ने नही सोचा ...वही बात की इंसान से तुलना हुई तो बात कितनी गहराई पे पहुँचा दी आपने ..
"आदमी का कंघी में उलझ कर बाल की तरह टूटना .." ये कैसी प्रखर तुलना है ..अपनी जड़ों से बिछड़ी हुई पीढी दर पीढी नज़र आ रही है ..

29 अक्तूबर 2009 को 10:29 pm बजे

जब से,

ख्वाब जागने लगे हैं रातों में

बैचेनियाँ सवार हो आई हैं नींद पर

आदमी उलझकर कंघी में टूट रहा है जड़ों से

और फेंका जा रहा है

शहरों में कूड़े के साथ


बहुत सुंदर रचना ..धन्यवाद मुकेश जी

29 अक्तूबर 2009 को 10:47 pm बजे

नवीन प्रतीकों के साथ नवीनता को दर्शाती अच्‍छी रचना के लिए बधाई।

30 अक्तूबर 2009 को 8:56 am बजे

बेहद खूबसूरत रचना.

रामराम.

30 अक्तूबर 2009 को 10:53 am बजे
रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत कुछ गुम होता जा रहा है ... और आपकी लिखी यह पंक्तियाँ उस सच को उजागर करती है
ना आदमी में कुछ बचा

ना खजूर में

दोनों ही नज़र नही आते
बहुत सही और सुन्दर

30 अक्तूबर 2009 को 12:42 pm बजे
ज्योति सिंह ने कहा…

sach hi hai ,bahut shaandar rachana
सभी जगह उग रही हैं

गाजर घांस

ना आदमी में कुछ बचा

ना खजूर में

दोनों ही नज़र नही आते

30 अक्तूबर 2009 को 2:31 pm बजे
ओम आर्य ने कहा…

ख्वाब जागने लगे हैं रातों में

बैचेनियाँ सवार हो आई हैं नींद पर

आदमी उलझकर कंघी में टूट रहा है जड़ों से

और फेंका जा रहा है

शहरों में कूड़े के साथ


बहुत ही सही लिखा है आज इंसानियत कचरा मे ही जा रही है,बेहद खुबसूरती से वास्तविकता को निचोड के रख दिया है !बहुत ही सुन्दर!लाज़वाब!

30 अक्तूबर 2009 को 4:29 pm बजे
Gyan Dutt Pandey ने कहा…

बहुत सुन्दर!
------
आज वह उदास हो गया
आदमी था, गाजर घास हो गया! :(

30 अक्तूबर 2009 को 8:04 pm बजे
BrijmohanShrivastava ने कहा…

खजूर की छांव को ""छांव के पैबन्द "बहुत अच्छा प्रयोग लगा ।खेतों की मेड पर और तालाव के किनारे खजूर अब दिखाई नही देते चटाई डलिया सूप छवडियां झाडू खजूर की ही बना करती थी ,एक और पंखा जिसे विजना भी कहा जाता था वह भी और खपरैल घरों पर म्याल भी खजूर की लगती थी । रातों मे ख्वाब के कारण नींद मे व्यबधान होना बिल्कुल स्वाभाविक बात कही है ।मेहनत और सोच का सीधा सम्बन्ध है नींद से ।श्रमित भूप निद्रा अति आई , सो किम सोव सोच अधिकाई "प्रताप भानु के प्रसंग मे यही बताया है ।खैर।
२२ तारीख को पिडावा आ गया था किन्तु इन्टर्नेट आज चालू हुआ है नाम और पासवर्ड गलत बता रहा था ,बार बार झालाबाड फ़ोन करना पडा तब जाकर आज ठीक हुआ है ।

30 अक्तूबर 2009 को 9:36 pm बजे

मुकेशजी,
खजूर के पेड़ से कविता के लिए ऐसे मर्मस्पर्शीय उपादान ढूंढ लेना आपके लिए ही सहज हो सकता है ! उल्लेख्य भावाभिव्यक्ति ! निष्कलुष विवेचन ! यथार्थ के सन्निकट, मर्म को बेधती हुई :
'आदमी उलझकर कंघी में टूट रहा है जड़ों से
और फेंका जा है
शहर में कूड़े के साथ...'
'न आदमी में कुछ बचा है
न खजूर में !'
आपकी दिक्कते-नज़र (गलत न समझें, 'अतल तक देखनेवाली नज़र') से रश्क होने लगा है !

उस दिन आपसे बातें करके मुझे भी परमानंद हुआ !
सप्रीत--आ.

31 अक्तूबर 2009 को 1:28 am बजे
Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

न आदमी में कुछ बचा
न खजूर में
दोनों ही नज़र नहीं आते...........

बहुत खरी बात.........

बधाई.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

31 अक्तूबर 2009 को 3:20 pm बजे

khajoor ke maadhyam se jeevan ki bahoot si baarikiyon ko ,,,,, bahoot si gahraaiyon ko utaara hai .... bahoot hi umda likha hai ...

31 अक्तूबर 2009 को 11:09 pm बजे
Prem Farukhabadi ने कहा…

Mukesh ji,
kavita bahut achchhi lagi. badhai!

1 नवंबर 2009 को 8:21 am बजे
गुंजन ने कहा…

भाई,

आदमी या खजूर दोनों हि नज़र नही आते हैं।

बहुत ही खूबसूरत चित्रण है व्यथा का।

जीतेन्द्र चौहान

4 नवंबर 2009 को 11:57 am बजे
Satish Saxena ने कहा…

वाह वाह ! सामयिक भावपूर्ण रचना !

6 नवंबर 2009 को 11:11 am बजे

आप सभी का हार्दिक आभार!

आपकी प्रतिक्रियायें मेरा मार्गदर्शन करती हैं और मुझे सुधारने में मदद भी।

सादर,


मुकेश कुमार तिवारी

6 नवंबर 2009 को 3:21 pm बजे
अपूर्व ने कहा…

खजूर के बहाने समाज की बदलती हुई प्रवृतियों को लाल घेरे मे खड़ा कर दिया आपने..छाँव के यह पैबंद भी अब गायब होते जा रहे हैं..आर्टिफ़िशियल लाइट्स की चौंधियाती रोशनी मे..
...काफ़ी कुछ सीखने को मिलता है आपकी कलम से..

11 नवंबर 2009 को 11:48 pm बजे