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बिस्तर में सिमटे हुये प्रश्न

बुधवार, 7 अक्तूबर 2009

क्यों?
देर रात घर लौटने के बाद भी
मन उदिग्न रहता है
और बिस्तर में भी
वो सारे प्रश्न
जिनके उत्तर मैं खोज नही पाया आजतक
दग्ध करते हैं

क्यों?
ऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं

क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले

क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
----------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०७-ऑक्टोबर-२००९ / सुबह : ०६:१६ / घर

21 टिप्पणियाँ

vijay kumar sappatti ने कहा…

mukesh ji

bahut hi jalti hui tasweer ko pesh kiya hai aapne is kavita me . ye har aam aadmi ki zindagi ki hai .. aur sach to yehi hai ki hum sab bahut se uttaro ki talassh jivan bhar karte rahte hai ..

meri badhai sweekar kare..

dhanywad

vijay
www.poemofvijay.blogspot.com

7 अक्तूबर 2009 को 2:07 pm बजे

बहुत सुन्दर,
यही तो निरंतरता है, अनबुझे मानसिक हलचलों की !

7 अक्तूबर 2009 को 2:53 pm बजे
Chandan Kumar Jha ने कहा…

अजीब से प्रश्न हैं ये और उत्तर क्या होगा……

सुन्दर रचना ।

7 अक्तूबर 2009 को 3:12 pm बजे
रंजू भाटिया ने कहा…

क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /

ज़िन्दगी में अक्सर ऐसा क्यों हो जाता है यही तो समझ नहीं आता है ..अजीब से प्रश्न है यह ज़िन्दगी के और जवाब भी हम खुद ही बना लेते हैं ..भूख तो लगती है अब भी ..यह पंक्ति बहुत कुछ कहती है ..सुन्दर रचना लिखी है आपने मुकेश जी बधाई

7 अक्तूबर 2009 को 3:19 pm बजे
vandana gupta ने कहा…

kuch prashnon ke jawab sari zindagi khojo ..........nhi milte aur zindagi yun hi gujar jati hai......kuch prashna prashna hi rahte hain .bahut badhiya likha aapne

7 अक्तूबर 2009 को 3:33 pm बजे
ओम आर्य ने कहा…

mukesh ji
aapaki rachanaye yatharth ke karib hoti hai ,jo padhane ke bad ek ajib si sakoon de jati hai ...

क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी

bilkul sahi hai ye panktiyaa sabhi chijo ke baawjood bhookh to lagati hai ........kafi gaharai hai in panktiyo me.

saadar
om arya

7 अक्तूबर 2009 को 4:00 pm बजे

mann ki anginat ankahi udwignta se bhara vyakti yun hi nirantar dagdh rahta hai......
bahut achhi rachna

7 अक्तूबर 2009 को 5:08 pm बजे
M VERMA ने कहा…

सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
जीवन की आपाधापी मे सपने भी तो अपने नही रहे. बिस्तर अब नींद का पर्यायवाची नही रहा.
बेहतरीन रचना, बेहतरीन भाव, बेहतरीन ढंग से व्यक्त संत्रास

7 अक्तूबर 2009 को 5:59 pm बजे
रंजना ने कहा…

मन का यह भूख ही तो जीने का आधार भी है .....

बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर रचना....आभार.

7 अक्तूबर 2009 को 6:33 pm बजे
vikram7 ने कहा…

क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द
और नींद खुल जाती है
मन भागने लगता है बिस्तर छोड़ने के पहले
सुन्दर रचना

7 अक्तूबर 2009 को 7:42 pm बजे
kshama ने कहा…

Har kisee ke ehsaason ko zubaan dedee aapne!

7 अक्तूबर 2009 को 11:35 pm बजे
mehek ने कहा…

mann ki es uthalputhal ka kya karen,ek sunde rachana ke liye badhai.

7 अक्तूबर 2009 को 11:58 pm बजे
शरद कोकास ने कहा…

सीधी सी बात है मोहब्बत हो गई है ।

8 अक्तूबर 2009 को 12:13 am बजे

क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द ......

कुछ सवाल ऐसे होते हैं जो पूरी उम्र हमारे इर्दगिर्द घुमते रहते हैं ...... जिनका सवाल शायद कभी नहीं मिलता ......... बहुत ही कमल का लिखा है मुकेश जी .......... क्यों .......... सच में क्यों होता है ऐसा ........

8 अक्तूबर 2009 को 12:15 am बजे

क्यों?
सुबह की शीतलता बदल गई है आग में /
दिन अब बोझिल से लगते हैं /
शाम सुहावनी नही लगती /
रात घर लौटने को मन नही करता /
सपने नही आते / नींद नही आती /
लेकिन, भूख लगती है अब भी
शायद ये सब के मन के प्रश्न हैं जिन्हें समझ पाना मुश्किल है बहुत सुन्दर मन की अम्तरवेदना को समेटे ये रचना ।अभार व शुभकामनायें

8 अक्तूबर 2009 को 10:58 am बजे
गुंजन ने कहा…

भाई,

रोज जिन्दगी जिस तरह खटती है वही सब चित्रवत गुजर जाता है आँखों के सामने से।

एक अच्छी कविता।

जीतेन्द्र चौहान

10 अक्तूबर 2009 को 2:11 pm बजे
हरकीरत ' हीर' ने कहा…

क्यों?
ऐसा लगता है कि
काश यह रात ना होती तो
मैं ठहरता नही
खोजता समाधानों को / आजमाता
और लिख पाता कोई कहानी नई
वो सारे प्रश्न मेरे सपनों पे काबिज हो जाते हैं


सीधी सी बात है मोहब्बत हो गई है ....हा....हा....हा.....शरद जी अच्छा जवाब दिया ......!!

हरि नाम का जाप कर गंगा जल पी लीजियेगा .....!!

10 अक्तूबर 2009 को 9:28 pm बजे
ज्योति सिंह ने कहा…

क्यों?
सुबह आँख खुलने के पहले ही
वो सारे अनुत्तरित प्रश्न
जमा हो जाते हैं
तकिये के इर्द-गिर्द ......
bahut sahi tasvir .sundar rachna

12 अक्तूबर 2009 को 12:08 am बजे

अच्छी कविता के लिये साधुवाद स्वीकारें....

12 अक्तूबर 2009 को 7:27 pm बजे

आप सभी का आभार!

:)


सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

13 अक्तूबर 2009 को 12:08 pm बजे
serendipity ने कहा…

maza aa gaya...bahut achcha likhte hain

21 अक्तूबर 2009 को 5:31 pm बजे