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सोयी सुबह - जागी रातें

गुरुवार, 7 मई 2009

आज,
सुबह उठते ही
मैनें महसूस किया कि
मन खिन्न है
वैसे कोई कारण सीधे सीधे नजर नही आता
पर उदासी छाई हुई है

ऐसा भी नही है
कि रात किसी ख्वाब ने लुभाया हो
और हकीकत के खर्राटों ने जगाते हुये
ला पटका हो अपनी औकात पर

ऐसा भी नही कि
भीगी यादों की खुश्बू से सजा बिस्तर
भर गया हो जागती सिलवटों से
और नींद उचट गई हो

ऐसा भी नही हुआ कि
सारी रात तेरी जुम्बिश से
चिपका रहा बिस्तर पर
और भोर में जागा हूँ भीगा भीगा सा

अब,
कुछ कहा नही जाता कि
क्यों सुबह में कुछ नया नही लग रहा है?
क्यों सुबह बिस्तर छोड़ने में लगता है ड़र?
क्यों ऐसा लगता है कि
चादर ओढ़ कर और सोया जाये
या यूँ ही जागते हुये
बुने जायें कुछ ख्वाब लुभावने से /
बुनी जाये दुनिया अपनी सी /
और भूल जायें कुछ देर के लिये ही सही
वो सोयी-सोयी सुबह /
वो जागी-जागी रातें
------------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ३०-अप्रैल-२००९ / समय : ११:२२ रात्रि / घर

11 टिप्पणियाँ

रंजू भाटिया ने कहा…

क्यों ऐसा लगता है कि
चादर ओढ़ कर और सोया जाये
या यूँ ही जागते हुये
बुने जायें कुछ ख्वाब लुभावने से /
बुनी जाये दुनिया अपनी सी /
और भूल जायें कुछ देर के लिये ही सही
वो सोयी-सोयी सुबह /
वो जागी-जागी रातें

बहुत सही ..कुछ ऐसे ही दिल करता है सच में ..जागती आँखों से कई ख्वाब सही में बहुत दिल को लुभाते हैं और उन्ही सपनों में उनींदा सा रहना दिल को बहुत भाता है ...बहुत ही अच्छा लगा यह ख्याल आपकी इस रचना के रूप में पढ़ कर मुकेश जी ......आपके लिखे का इन्तजार रहता है ...क्यों की इस में खुद के भाव छलक जाते हैं ..शुक्रिया

7 मई 2009 को 12:14 pm बजे
Urmi ने कहा…

मुझे आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा ! आपने बहुत ही सुंदर लिखा है ! मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है !

7 मई 2009 को 1:53 pm बजे
Vinay ने कहा…

आपकी कविताओं से जो रस मिला वह बहुत मीठा है

---
चाँद, बादल और शामगुलाबी कोंपलें

7 मई 2009 को 2:38 pm बजे
Pritishi ने कहा…

Could have been better. What you are trying to say is not clear.

God bless
RC

7 मई 2009 को 6:00 pm बजे

क्यों ऐसा लगता है कि
चादर ओढ़ कर और सोया जाये
या यूँ ही जागते हुये
बुने जायें कुछ ख्वाब लुभावने से /
बुनी जाये दुनिया अपनी सी /
और भूल जायें कुछ देर के लिये ही सही
वो सोयी-सोयी सुबह /
वो जागी-जागी रातें ....jane kyun lagta hai,par lagta hai,sambhawtah jivan ki aapadhpi se alag ek pal jeena chahta hai aadmi.

7 मई 2009 को 6:32 pm बजे

sahi hai kyee baar bina kisi baat ke man udas hota hai.....jane kis cheez ki kami mahsus hotee hai....

7 मई 2009 को 10:57 pm बजे
हरकीरत ' हीर' ने कहा…

क्यों ऐसा लगता है कि
चादर ओढ़ कर और सोया जाये
या यूँ ही जागते हुये
बुने जायें कुछ ख्वाब लुभावने से /
बुनी जाये दुनिया अपनी सी /
और भूल जायें कुछ देर के लिये ही सही
वो सोयी-सोयी सुबह /
वो जागी-जागी रातें

बहुत सुंदर ....!!

7 मई 2009 को 11:48 pm बजे
Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया!

8 मई 2009 को 6:50 am बजे
Prem Farukhabadi ने कहा…

बहुत बढ़िया!!!बहुत सुंदर!!!

8 मई 2009 को 8:21 am बजे
BrijmohanShrivastava ने कहा…

सुबह उठने पर अकारण उदासी छा जाना और मन खिन्न होजाना -एक आम आदमी की अनुभूति को आपने शब्दों में पिरोया है /इस आकस्मिक खिन्नता का कोई कारण आज तक समझ में नहीं आया है /शोधकर्ता लगे हैं शोध करने में /दूसरे छंद में भी मानव प्रवृति का चित्रण किया गया है आदमी सोचता है कहीं कोई सपना तो नहीं देखा था ? तीसरा छंद -हर आदमी के दिमाग में सबसे पहले यही बात आती है की यार नीद तो रात को ठीक आई पर ऐसा क्यों हो रहा है ? अगला छंद भी इसी जमीन पर है वही रात को नीद आई या नहीं या याद वगैरा वगैरा /बहुत गहराई इस बात में कि सुबह बिस्तर छोड़ने में लगता है डर /आज के माहोल में आम आदमी की मानसिक अवस्था का चित्रण किया हैबुने जाएँ ख्वाब में भी आम मानसिक अवस्था का चित्रण है /अपनी दुनिया बनाई जाये और कुछ देर के लिए सब कुछ भूला जाये //इसी मानसिक प्रवृति के कारण ध्यान ,मेडीटेशन ,जुआ ,खेल तमाशे ,नाटक ,तीतर बटेर की लड़ाई ,पतंगबाजी ,शराब जैसे नशे भी इसी कारण बने होंगे खुद को भूल जाने के लिए /

12 मई 2009 को 2:19 pm बजे

kal hi aapse baat hiu//lambe safar ke baad aapse ki hui baat ne taazgi dilai/ dil ko achchaa laga/

aapki kavita me insaani kashmkash he/ apne aap se ki jaane vali jang, udhedbun se upaji vicharo ki sareetaye//ynha man khinna bhi hota he to kabhi vichar shoonyata bhi aati he///yakinan har aadmi ke saath kuchh esa hota hi rahta he///dinbhar ki thakaan yaa kahe aapaadhaapi ke baad sukunbhari nind koun nahi chahta//nind milti bhi he to dimaag hamesha sakriya hota he lihaazaa subah uthne kaa aour subah kaa aalam dono hi kabhi kabhi man ko bhata nahi, fir lagtaa he thoda aour so liya jaye....///////
सुबह उठते ही
मैनें महसूस किया कि
मन खिन्न है
वैसे कोई कारण सीधे सीधे नजर नही आता
पर उदासी छाई हुई है
takniki bhasha me kahe to ye bhi hamare man ki kuchh naa ho pane ki vajah se upja vo bhav he jo kisi tarah ka koi bahaanaa dhoondhta he aour man ko fir se raaste par lane ka pryatna karta he//
कुछ कहा नही जाता कि
क्यों सुबह में कुछ नया नही लग रहा है?
क्यों सुबह बिस्तर छोड़ने में लगता है ड़र?
क्यों ऐसा लगता है कि
चादर ओढ़ कर और सोया जाये
या यूँ ही जागते हुये
बुने जायें कुछ ख्वाब लुभावने से /
बुनी जाये दुनिया अपनी सी /
और भूल जायें कुछ देर के लिये ही सही
वो सोयी-सोयी सुबह /
वो जागी-जागी रातें
akhirkaar bistar tyaag kar dincharya me lagna hi dharm he///fir ek raat ke liye dinbhar jutna//////

13 मई 2009 को 5:05 pm बजे