आकाश,
मेरे लिये सदा ही
प्रश्नों से भरा रहा
दिन की अंनत गहराईयों में
समेटे / लुढकते बादलों से प्रश्न
रात की कालिख़ पर
कभी टिमटिमाते
या कभी टूटते तारों से प्रश्न?
सुबह,
मेरे लिये सदा ही
एक कौतुहल सी रही
जिसमें रोज खोजना है
अपने आप को
रेत पर लिखे हुये नाम सा
या हवा से अलगकर कैद करना है
खुश्बू अपने हिस्से की
रात,
मुझे लिये आती है
अपने खूंटे को तलाशते
जानवर सी
हौज़ में तलाशती अपने होने को
या, ठंडी हवाओं में घुले हुये सपनों से
चुन लेना है अपना सच
फिर,
मैं बंटने लगता हूँ
सुबह और रात के बीच
अटके हुये आकाश में
जहाँ,
सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न है
रूप बदलते हुये
------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : 08-मार्च-2009 / समय : 10:43 रात्रि / घर
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
13 टिप्पणियाँ
Very nice.
28 अप्रैल 2009 को 10:13 am बजे2nd and 3rd verse - too good!
God bless
RC
सुबह,
28 अप्रैल 2009 को 6:16 pm बजेमेरे लिये सदा ही
एक कौतुहल सी रही
जिसमें रोज खोजना है
अपने आप को
रेत पर लिखे हुये नाम सा
जीवन की मायने तलाशती सहज किन्तु सार्थक रचना .धन्यवाद .
दिन की अंनत गहराईयों में
28 अप्रैल 2009 को 8:29 pm बजेसमेटे / लुढकते बादलों से प्रश्न
रात की कालिख़ पर
कभी टिमटिमाते
या कभी टूटते तारों से प्रश्न?
यह प्रश्न ही ज़िन्दगी को यूँ चलाते रहते हैं ..इन्हीं सवालों जवाबों में दिन रात कट जाते हैं ..सुन्दर भाव लिए बेहतरीन लगी यह रचना ....
सुबह रोज़ खोजना है अपने आप को /रात खूंटे को तलाश करती जानवर सी /सुंदर अभिव्यक्ति /दिन और रात के बीच अटका आकाश और फिर उससे प्रश्न पूछना /सशक्त रचना /
29 अप्रैल 2009 को 3:32 pm बजेफिर
30 अप्रैल 2009 को 10:48 am बजेमैं बटने लगता हूँ
सुबह और रात के बीच
अटके हुए आकाश में
जहाँ,
सिर्फ प्रश्न ही प्रश्न है
रूप बदलते हुए
अत्यधिक सच निष्कर्ष एक सुन्दर भावव्यक्ति द्वारा.
बधाई स्वीकार करें.
आभार
चन्द्र मोहन गुप्त
मुझे आपकी यह कविता बहुत पसन्द आई। इतनी कि लगा बहुत से भाव मेरे अपने ही हैं। जब पाठक किसी रचना में स्वय को पाए तो समझिए लिखना सफल हुआ।
2 मई 2009 को 3:05 pm बजेघुघूती बासूती
प्रश्नों का आकाश,सुबह का कौतुहल,रात खूंटे की शक्ल में .....
3 मई 2009 को 7:43 pm बजेदिन के पूरे सूरज को चलकर निहारें,
मुमकिन है कोई हल निकल जाये..........
बहुत ही सहज
4 मई 2009 को 5:22 pm बजेलेकिन मन-नीय प्रश्नावली
बहुत सुन्दर काव्यात्मक अभ्व्यक्ति
कला और भाव का अनुपम सम्मिश्रण
बधाई
०९८७२२मुफ़्लिस११४११
क्या कहूँ मैं........बस यही कहूँगा गज़ब.........!!...............गहराई को तलाशती आपकी कवितायें मेरे भी दिल को भा गयी......!!मैं उनमें डूबने ही वाला था कि एकाएक उबार गया....!!और मुहं से निकला वाह...गज़ब.....!!
5 मई 2009 को 7:51 am बजेbhav sarlta se abhivyakt hote he,
5 मई 2009 को 5:27 pm बजेरात,
मुझे लिये आती है
अपने खूंटे को तलाशते
जानवर सी
हौज़ में तलाशती अपने होने को
या, ठंडी हवाओं में घुले हुये सपनों से
चुन लेना है अपना सच
khaaskar in panktiyo ne man moh liya/ visheshanoyukt rachna vese bhi man ko moh hi leti he//
-kal hi south africa pahucha aour aapki tippani dekhi/ mujhe aanad prapt hoga jab aapse mulakaat hogi/ mumbai loutunga tab phon karunga/
तिवारी जी रचनाएँ ,सरल और सुबोध हैं /मानव की मानसिक पीडा का दर्शन कराती रचनाये इनकी होती हैंकिन परिस्थितियों ;में मानव मष्तिष्क में क्या विचार उत्पन्नं होते हैं या हो सकते हैं ,का ,इनकी रचनाएँ सजीवचित्रण करती है ,इन्हें मानव मस्तिष्क का चितेरा कहा जा सकता हैइनकी रचनाएँ अनेकार्थी और बहु आयामी होती हैं /आपका साहित्यिक योग सराहनीय है
6 मई 2009 को 10:28 am बजेऐसे रचनाधर्मी का सम्मान किये जाने पर हिंदी युग्म को धन्यवाद ,तिवारी जी को बधाई
एक और बात -इनकी रचनाओं से कभी कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है किसाहित्यकार जीवन का प्रति निष्ठावान होते हुए भी अपने प्रति अत्यंत निरपेक्ष है
भविष्य में कोई समानधर्मा होगा जो इनका साहित्य;समझेगाइनका साहित्य दूसरों तक कब पहुंचेगा ,यह तो तय नहीं ,लेकिन पहुंचेगा यह विश्वास है
"सुबह,
6 मई 2009 को 12:20 pm बजेमेरे लिये सदा ही
एक कौतुहल सी रही
जिसमें रोज खोजना है
अपने आप को
रेत पर लिखे हुये नाम सा
या हवा से अलगकर कैद करना है
खुश्बू अपने हिस्से की "
कविता बहुत पसन्द आई।
बधाई स्वीकार करें.
आपकी ख़ूबसूरत टिपण्णी मिलने पर मेरा दिल खुशी से बाग बाग हो गया और आपने मेरे लिखने की उत्साह को दुगना कर दिया है!
8 मई 2009 को 7:53 am बजेबहुत ही सुंदर रचना लिखा है आपने!
मेरे दुसरे ब्लोगों पर आपका स्वागत है-
http://khanamasala.blogspot.com
http://urmi-z-unique.blogspot.com
एक टिप्पणी भेजें