मुझे,
यह लगता है कि
रात नही होती तो
मैं,
दिन को खींचकर लम्बा कर लेता
शाम के मुहाने से
और खो जाता कहीं उस भीड़ में
जो, घर से निकलती तो है
और लौटने के पहले
बदल जाती है कहानियों में
घर के मुहाने पर
मुझे,
यह लगता है कि
रात नही होती तो
मैं,
कैद कर लेता सपनों को पलकों में
आँसुओं में बदलने से पहले
और ढ़ल जाता किसी गीत में
जिसे गुनगुनाया जा सकता है
मौन रहकर भी
और जिसकी अनुगूंज को किया जा सकता हो महसूस
दीवारों पर दरार बनाते हुये
जिनके पार दुनिया को देखा जा सकता है
बिना किसी चष्में के
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 17-अगस्त-2010 / समय : 10:17 साँय / ऑफिस
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16 टिप्पणियाँ
मुझे,
18 अगस्त 2010 को 4:38 pm बजेयह लगता है कि
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मुझे,
यह लगता है कि
रात नही होती तो
मैं,
कैद कर लेता सपनों को पलकों में
सपनो को कैद करने का यह अन्दाज अच्छा लगा
Wah! Kitna anootha khayal hai!
18 अगस्त 2010 को 4:44 pm बजेMai sochane lagi,ki,mai kya karti? Ek zamana tha,jab itne chhand the,ki,din chhota padta! Lagta 24 ke badle 48 ghanton ka din ho!
Aur ab lagta hai,dinme taare ginne padenge!
कविता अच्छी लगी धन्यवाद्|
18 अगस्त 2010 को 4:46 pm बजेबहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ा मुकेश जी ..बहुत बेहतरीन लिखते हैं आप हमेशा की तरह
18 अगस्त 2010 को 5:53 pm बजेरात कितने गहरे रहस्य छिपा ले जाती है जीवन के।
18 अगस्त 2010 को 7:33 pm बजेगहरे भाव लिए उम्दा प्रस्तुति।
18 अगस्त 2010 को 9:22 pm बजेbhaayi jaan raat nhin hoti to
18 अगस्त 2010 को 9:30 pm बजेsubh kiyaa he iskaa mzaa naa hotaa .
raat naa hoti to
spne kyaa hen hm kese jaan paate
raat naa hoti to andhere kyaa hen kese ptaa chltaa raat naa hoti to bijli kaa khrchaa nhin hotaa or raat naa hoti to vishv ki jnsnkhyaa aadhi se bhi aadhi hoti mzaaq ke liyen maafi chaahtaa hun aapkaa flsfaa or alfaaz bhut khub bdhaayi ho, akhtar khan akela kota rajsthan
so beautiful!
19 अगस्त 2010 को 12:05 am बजेso beautiful!
19 अगस्त 2010 को 12:05 am बजेमैं,
20 अगस्त 2010 को 1:02 am बजेदिन को खींचकर लम्बा कर लेता
शाम के मुहाने से
और खो जाता कहीं उस भीड़ में
जो, घर से निकलती तो है
और लौटने के पहले
बदल जाती है कहानियों में
घर के मुहाने पर
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ....पर लोग रात को कभी कभी रात नहीं समझते ..सोच में ही डूबे रहते हैं ..
shundar Abhivyakti
20 अगस्त 2010 को 11:35 am बजेएकाकीपन की पीड़ा को क्या खूब बयान किया है आपने...
20 अगस्त 2010 को 4:20 pm बजेउजाले का जाल,स्मृतियों को कहीं छुपने को बाध्य कर देता है...पर रात का अँधेरा.... दर्द, आंसू और यादों के हथियार ले धावा बोल देता है...
सचमुच रात न हो तो सपनों को पलकों में बड़े आराम से कैद किया जा सकता है...
आप सभी का धन्यवाद!
24 अगस्त 2010 को 8:12 pm बजेटिप्पणियाँ लिखने की और नया कुछ करने की प्रेरणा देती हैं।
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
bahut achhi prastuti.
25 अगस्त 2010 को 1:11 pm बजेमैं,
27 अगस्त 2010 को 7:10 pm बजेकैद कर लेता सपनों को पलकों में
आँसुओं में बदलने से पहले
और ढ़ल जाता किसी गीत में
जिसे गुनगुनाया जा सकता है
मौन रहकर भी
और जिसकी अनुगूंज को किया जा सकता हो महसूस
दीवारों पर दरार बनाते हुये
जिनके पार दुनिया को देखा जा सकता है
बिना किसी चष्में के
बेहतरीन कविता
Bikhare Sitare blog pe apka shukriya ada kiya hai...zaroor gaur farmayen!
27 अगस्त 2010 को 9:13 pm बजेएक टिप्पणी भेजें