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पतों के बीच लापता होते हुये

रविवार, 8 अगस्त 2010

दिन, जैसे आग में झुलस रहे हों
रातें,
पक रही हों अलाव की धीमी आँच पर
अब न भोर सुहाती है
न शाम सुहानी लगती है
सुकून,
जरूर किसी चिड़िया का नाम होगा
आजकल तो
शहर में इतनी भीड़ है कि
कभीकभी खुद परछांई को भी मुश्किल होता है
तलाश लेना ज़मीन अपने लिये
इंसानों से बचते हुये


दीवारों,
पर तनी हुई छत को
भले ही पहचाना लिया जाये
एक घर के नाम से
लेकिन वह छटपटाता रहता है
अपनी पहचान से
पूरी जिन्दगी एक पते से चिपके हुये
और
दीवारों के बाद
या तो जरूरतें बिखरी होती हैं
या रिश्ते तने हुये होते हैं
या आदमी गुम हुये होते हैं खुद की तलाश में
घर अब भी मौजूद होता है वहीं
पतों के बीच लापता होते हुये
----------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-अगस्त-२०१० / घर / समय : ०२:५३ दोपहर

9 टिप्पणियाँ

शहर में इतनी भीड़ है कि
कभीकभी खुद परछांई को भी मुश्किल होता है
तलाश लेना ज़मीन अपने लिये
इंसानों से बचते हुये

बहुत सही चित्रण किया है ..


या आदमी गुम हुये होते हैं खुद की तलाश में
घर अब भी मौजूद होता है वहीं
पतों के बीच लापता होते हुये

सच्चाई लिख दी है...एक बेहतरीन रचना ...

8 अगस्त 2010 को 3:17 pm बजे
Mithilesh dubey ने कहा…

ओह क्या कहूं, शब्द नहीं आपके इस रचना के लिए, सच को दर्शती लाजवाब रचना दिल को छू गयी ।

8 अगस्त 2010 को 6:08 pm बजे

खोये हुये व्यक्तित्वों को ढूड़ने की पीड़ा।

9 अगस्त 2010 को 8:22 am बजे
रंजना ने कहा…

बस बता कर जा रही हूँ कि पढ़ लिया...
प्रभाव बताना संभव नहीं...निःशब्दता की स्थिति में कुछ कह पाना सरल है क्या....

10 अगस्त 2010 को 2:40 pm बजे

http://charchamanch.blogspot.com/2010/08/241.html

10 अगस्त 2010 को 10:30 pm बजे
बेनामी ने कहा…

bahut hi khoobsurati se likha hai aapne .. share karne k liye shukriya..

Meri Nayi Kavita par aapke Comments ka intzar rahega.....

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13 अगस्त 2010 को 7:14 pm बजे
M VERMA ने कहा…

घर अब भी मौजूद होता है वहीं
पतों के बीच लापता होते हुये

इतने पते हैं कि किसी का पता ही नहीं है
इतने रास्ते है कि सही रास्ते का पता ही नहीं है
बहुत सुन्दर रचना
भीड़ में खोता हुआ वजूद ...

15 अगस्त 2010 को 5:19 pm बजे
rakeshindore.blogspot.com ने कहा…

Bhai mukesh ji
You are having complete poetic vision. keep it up . congratulations.

17 अगस्त 2010 को 7:04 pm बजे

आजकल तो
शहर में इतनी भीड़ है कि
कभीकभी खुद परछांई को भी मुश्किल होता है
तलाश लेना ज़मीन अपने लिये
इंसानों से बचते हुये ..

इंसान इसी भीड़ में गुम हो जाता है बिना किसी पहचान के ....
जीने की इस मजबूरी को ढोना लाचारी है आज ....

18 अगस्त 2010 को 4:31 pm बजे