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क्षितिज के पार

सोमवार, 8 जून 2009

शब्द,
बस दम घोंटे हुये
चुपचाप वहीं बैठे रहे
बाट जोहते अपनी बारी की

विचार,
छटपटाते हुये
ढूंढते रहे रास्ता बस
किसी तरह बह निकलने का

मैं,
दोनों के बीच
हाशिये पर टंगा
तलाश रहा था वुजूद अपना
त्रिशंकु सा
और,
क्षितिज पर
केवल तुम थी,
सत्य की तरह
शाश्वत
----------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : ०६-जून-२००९ / समय : ११:१८ रात्रि / घर

13 टिप्पणियाँ

रंजू भाटिया ने कहा…

मैं,
दोनों के बीच
हाशिये पर टंगा
तलाश रहा था वुजूद अपना
त्रिशंकु सा
और,
लगता है की इस हालात से हर लिखने वाला दिल गुजरता है ...अपने वजूद की तलाश और फिर उसके होने का एक एहसास
फिर सिर्फ एक सत्य जो सिर्फ आभास है क्षितिज सा

और,
क्षितिज पर
केवल तुम थी,
सत्य की तरह
शाश्वत

बहुत सुन्दर ...

8 जून 2009 को 6:44 pm बजे
श्यामल सुमन ने कहा…

छोटी रचना है सही लेकिन भाव अथाह।
शब्द विचार दोनों बचे आया नया प्रवाह।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

8 जून 2009 को 7:23 pm बजे

isi talash me to vo chal padta hai kagaz ki kali pagdandion par sunder kavita badhai

8 जून 2009 को 9:24 pm बजे
गौतम राजऋषि ने कहा…

आपकी कलम का इक और जादू...
आह!
इन शब्दों और विचारों की जंग में लिपटे हम को इतनी बखूबी से उकेरना, आप ही कर सकते हैं कविवर!

8 जून 2009 को 9:56 pm बजे

jab hum apne wajood ki talash mein hote hain,ek satya aankhon ke aage kisi shakl mein awashya hota hai.......bahut hi achhi

8 जून 2009 को 11:40 pm बजे

शब्द मौन हैं लेकिन कविता,
अन्तर के पट खोल रही है।
जाल-जगत के आनन में,
बैठी मिश्री सी घोल रही है।।

10 जून 2009 को 6:05 pm बजे
Prem Farukhabadi ने कहा…

मैं,
दोनों के बीच
हाशिये पर टंगा
तलाश रहा था वुजूद अपना
त्रिशंकु सा
और,
क्षितिज पर
केवल तुम थी,
सत्य की तरह
शाश्वत


तिवारी जी,

मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे
ज्यों जहाज को पंछी फिर उडि जहाज पे आवे.

बहुत सुन्दर अपना सुख तलाशती हुई रचना.

11 जून 2009 को 2:53 pm बजे
मोना परसाई ने कहा…

शब्द,
बस दम घोंटे हुये
चुपचाप वहीं बैठे रहे
बाट जोहते अपनी बारी की
अंतर और बाह्य जगत की कश्मकश को बयाँ करती सुन्दर रचना .

11 जून 2009 को 3:06 pm बजे
Urmi ने कहा…

मुकेश जी आपको मेरा पोस्ट पसंद आया मुझे बहुत अच्छा लगा!
आपने बहुत ही ख़ूबसूरत रचना लिखा है जो काबिले तारीफ है!

11 जून 2009 को 7:50 pm बजे
हरकीरत ' हीर' ने कहा…

और
क्षितिज़ पर
केवल तुम थी
सत्य की तरह
शाश्वत.......

बहुत खूब....!!

अगर उस रूप में सत्य मिल जाये तो यकीनन ज़िन्दगी पा ली ....!!

[ आपके स्नेह की आभारी हूँ ....पर मेरा जनम दिन नहीं है मैं ब्लॉग पे भी बता चुकी हूँ ]

13 जून 2009 को 9:44 pm बजे

रचना बहुत अच्छी लगी...धन्यवाद.
आप से अनुरोध है कि समकालीन ग़ज़ल पत्रिका और बनारस के कवि/शायर जरूर देंखे....

15 जून 2009 को 2:28 pm बजे
ओम आर्य ने कहा…

आपकी रचनाओ का कोई जबाव नही .......आप जो भी लिखते है उनमे सिर्फ गहराई होती है....जिन्दगी उनका आधार .....बिल्कुल जीवित

15 जून 2009 को 5:27 pm बजे
neera ने कहा…