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कविता : धरती के इस छोर से.........

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

आकाश ,
तुम एक चुनौती ही रहे मेरे लिये
मैनें अपनी ऊँचाईयों को पहचाना
तुम्हारे होने से
और
हमारे फासले के बीच
क्षितिज से लगाकर व्योम तक
मैनें अपनी साँसे भर दी
और गौण हो गया

तुम्हारे साये में
मैनें लिक्खी थी जो कहानियाँ
वो किसी उपन्यास में बदलने के पहले ही
खत्म हो गयी
चौराहों पर कानाफूसी में
और
तुम अजेय बने रहे

तुम,
अपना सूनापन
मेरी साँसों में भर
खुद हँस लेते हो
मेरी नाकामियों पर
और
मुझे तलाशना होता है
अपने वुजूद को
धरती के इस छोर से उस छोर तक
फिर तुम्हारे विस्तार में
जहाँ शुभ्र चटक रंग वालों बादलों के बाद
कोई जगह नही बचती
मेरे लिये

आकाश,
तुम कभी मुझे लगे
कि जैसे किसीने
मेरे सिर पर खींच दी हो
सीमारेखा
या बाँध ली हो
मेरी ऊँचाईयों को
और हमारे बीच ठूंस दिया हो
जिम्मेदारियों को लानतों में बदलकर
और तुम मोहरा भर बने रहे
इस साजिश में
मेरे खिलाफ़
--------------------------------
मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 30-ऑक्टोबर-2010 / समय : 01:00 रात्रि / सी.एच.एल.-अपोलो हास्पिटल, इन्दौर

13 टिप्पणियाँ

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत गहन रचना!


सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-समीर लाल 'समीर'

5 नवंबर 2010 को 2:26 am बजे

आकाश की विशालता जब मन में परिलक्षित होने लगती है, मन अजेय हो जाता है।

5 नवंबर 2010 को 11:58 am बजे
vandana gupta ने कहा…

बेहद गहन प्रस्तुति।
दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनायें।

5 नवंबर 2010 को 1:10 pm बजे
मनोज कुमार ने कहा…

सुंदर और गहन रचना।

चिरागों से चिरागों में रोशनी भर दो,
हरेक के जीवन में हंसी-ख़ुशी भर दो।
अबके दीवाली पर हो रौशन जहां सारा
प्रेम-सद्भाव से सबकी ज़िन्दगी भर दो॥
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
सादर,
मनोज कुमार

5 नवंबर 2010 को 3:08 pm बजे
BrijmohanShrivastava ने कहा…

आप को सपरिवार दीपावली मंगलमय एवं शुभ हो!
मैं आपके -शारीरिक स्वास्थ्य तथा खुशहाली की कामना करता हूँ

5 नवंबर 2010 को 4:18 pm बजे
Pritishi ने कहा…

too good! bahut bahut khoob! Poori kavita bahut sundar ...

10 नवंबर 2010 को 1:31 pm बजे
M VERMA ने कहा…

और तुम मोहरा भर बने रहे
इस साजिश में
मेरे खिलाफ़
यकीनन आकाश तो मोहरा भर है. ऊँचाईयों और दायरों का निर्धारण तो कोई और ही कर रहा है आकाश के कन्धे पर बन्दूक रखकर.
सुन्दर .. गहन रचना

12 नवंबर 2010 को 5:12 am बजे
शरद कोकास ने कहा…

अच्छी कविता है मुकेश जी ।

17 नवंबर 2010 को 12:22 am बजे
बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है. 28 नवंबर 2010 को 9:02 pm बजे
बेनामी ने कहा…

विशाल फलक पर रची कविता बहुत सुंदर है बधाई

28 नवंबर 2010 को 9:05 pm बजे

आप सभी का धन्यवाद,

आपकी टिप्पणियों ने सदा ही अच्छा(मेरा यह आशय नही है कि मैं अच्छा लिखता हूँ, हरबार पहले से सुधरने की प्रक्रिया से गुजरना) लिखने को प्रेरित किया है।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी

2 दिसंबर 2010 को 5:55 pm बजे

आदरणीय मुकेश तिवारी जी
नमस्कार !
...........बेहद गहन प्रस्तुति।
बहुत पसन्द आया
हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
बहुत देर से पहुँच पाया ..........माफी चाहता हूँ..

11 दिसंबर 2010 को 11:12 am बजे
रंजू भाटिया ने कहा…

और
मुझे तलाशना होता है
अपने वुजूद को
धरती के इस छोर से उस छोर तक
फिर तुम्हारे विस्तार में
जहाँ शुभ्र चटक रंग वालों बादलों के बाद
कोई जगह नही बचती
मेरे लिये

बहुत कुछ पढने को मिला आज तो आपके लिखे में मुकेश जी ..बेहतरीन .बेहद अपनी लगी यह पंक्तियाँ

24 दिसंबर 2010 को 12:49 pm बजे