कुछ,
पता नही चलता कि
कब तुम नींव से बदले स्तंभ में
फिर दीवारों में वक्त के साथ
और
फिर तुम्हारी उपयोगिता पर ही
उठने लगे सवाल
नये रास्तों के लिये
रास्ते,
जिन पर न जाने
कितने लोगों ने पायी होंगी मंजिलें
वक्त के साथ
दिशाहीन हो जाते हैं /
जिनके सिरे खत्म नही होते कहीं पर /
या कहीं खुलते नही
तब,
जमीन में होने लगती है
हलचल
पहले नींव बदलती है स्तंभों नें
फिर स्तंभ दीवारों में
और
दीवारें कुर्बान होने लगती हैं
नये रास्तों के लिये
भले ही कुछ दूर के लिये ही सही
रास्ता बनता तो है
जिसके सिरे पर फिर से
दीवारें उगने लगी हैं
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२०१० / समय : २:१५ दोपहर
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7 टिप्पणियाँ
भले ही कुछ दूर के लिये ही सही
24 सितंबर 2010 को 6:44 pm बजेरास्ता बनता तो है
जिसके सिरे पर फिर से
दीवारें उगने लगी हैं
सवाल उठेंगे, दीवारें भी उठेंगी पर रास्ते बनने फिर भी बन्द नहीं होंगे.
पहले नींव बदलती है स्तंभों नें
शायद यहाँ 'स्तंभों ने' की जगह 'स्तंभों में' होना चाहिये.
बहुत अच्छी प्रस्तुति ...रास्ते बनाती सी ...सोचने पर विवश करती हुई
24 सितंबर 2010 को 6:52 pm बजेअद्भुत !!!!!
24 सितंबर 2010 को 7:16 pm बजेबेहतरीन, बस।
25 सितंबर 2010 को 10:22 am बजेहमेशा की तरह बेहतरीन मुकेश जी
25 सितंबर 2010 को 2:15 pm बजेअच्छी कविता है तिवारी जी ।
28 सितंबर 2010 को 8:27 pm बजेदीवारे कुर्बान होने लड़ती हैं
2 अक्तूबर 2010 को 8:22 am बजेनए रास्तों के लिए...........
उत्तम रचना ,,,,,,,
हार्दिक बधाई
चन्द्र मोहन गुप्त
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