अपने आस-पास बनी हुई या चलती हुई व्यवस्था में, मैं कबि जब अपने को खोजता हूँ तो निरर्थक सा महसूस करता हुँ या समय से पीछे चलता हुआ एक ऐसी मौजूदगी जो गैरजरूरी रूप से मौजूद है और वही घुटन जब शब्दों के साँचे में ढलती है तो ........
मैं,
उस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ
सारा तंत्र,
अपनी असफलताओं में ही
तलाश लेता हैं मुझे इस व्यवस्था में
कहीं से भी
चाहे हाशिये पर हूँ या कबाड़ में या कूड़े में
फिर लानतों का ठीकरा फोड़ा जाता है
शायद, इतने अनुभव ने प्रासंगिक बना दिया है
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ
व्यवस्था में,
यह बात घर कर गई है कि
जब तक चिल्लाकर कुछ नही कहा जायेगा
कोई जूँ भी नही रेंगेगी मेरे कानों पर
अक्सर लोग निकाल लेते हैं गुबार
मेरे कानों को और ऊँचा बना देते हैं
और मुझे अभ्यस्त
व्यव्स्था में गैरजरूरी ढंग से मौजूद बने रहने के लिये
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : ०८-सितम्बर-२००९ / समय : ०६:३० सुबह / घर
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21 टिप्पणियाँ
bahut khoob tivariji, kya behtreen upamaa ke sahare aapne gahree baat kah di/ sach hi to
12 सितंबर 2009 को 5:23 pm बजेमैं,
उस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
umra ke saath sath esi sthiti adhik ban jaati he aadmi ki/
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ ..
kya gambhirta se apne jeevan ka sach uker diya/ aadmi ki jindagi, usaki hesiyat..usaki asliyat.../
व्यव्स्था में गैरजरूरी ढंग से मौजूद बने रहने के लिये
uff, ye bhi mazboori ko prakat karta he unke liye jinke liye ham gerjaroori hone lage he/
bhai..ynha sir aapke lekhan ki daad dunga/
मैं,
12 सितंबर 2009 को 6:17 pm बजेउस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ
सही कहा आपने,वर्तमान व्यवस्था का सुन्दर चित्रण
Ham bhee zimmedaar hain,hamare is parivesh ke liye!
12 सितंबर 2009 को 6:17 pm बजेव्यवस्था को खुद को व्यवस्थित बने रहने के लिए व्यवस्थित ही नही कभी कभी अव्यवस्थित की भी आवश्यकता पडती है. निरर्थक का भी एक अर्थ होता है.
12 सितंबर 2009 को 7:08 pm बजेबहुत सुन्दर रचना. ऐसी रचना घुटन को शब्दो मे परिणिति से ही बनती है.
समसमायिक रचना जीवंत प्रतीत होती है
12 सितंबर 2009 को 8:44 pm बजेबहुत ही गहरे भाव । बहुत सुन्दर ।
13 सितंबर 2009 को 11:42 am बजेओह, जिस दिन मेरे चेम्बर से डस्टबिन गायब होता है; बड़ी असहजता होती है।
13 सितंबर 2009 को 1:32 pm बजेआपको चिरनवीन बने रहने के लिये एक कबाड़खाना जरूर चाहिये।
उस व्यवस्था में
13 सितंबर 2009 को 4:14 pm बजेउतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ
एक बेहद सुन्दर रचना जिसमे आप बहुत ही गहरी बात कही है .............बने रहने के लिये........... एक समसामयिक रचना....अतिसुन्दर
कटु सत्य और व्यंग्य ,दर्द भी |जो रचना लगभग १६-१७ छंदों में लिखी जानी थी उसे तीन में सीमित कर दिया यही तो विशेषता है तिवारी जी आपकी | सही है कबाड़खाने का वह कबाड़ जिसके बिना काम भी न चले और हर गलती के लिए जिम्मेदार ठहराया जाये | जब मैं नौकरी करता था तब भी यही सोचता था की यार बहरे लोग बड़े मज़े में हैं | वैसे घर पर भी बहरे बन कर रहा जाये तो मजे ही मज़े है ,(अपने मतलब की बात सुनलो नहीं तो बहरे तो हैं ही )
13 सितंबर 2009 को 7:42 pm बजेबन्धु,
14 सितंबर 2009 को 3:09 am बजेमैं घर में अक्सर कहता रहा हूँ कि मेरे कागज़-पत्तर न छेड़े जाएँ; क्योंकि मेरी अव्यवस्था में ही एक व्यवस्था है. आज आपकी इस कविता ने मेरे कथन कि सत्यता सिद्ध कर दी है. तफसील से लिखे जानेवाले तथ्य को एक छोटी सी कविता में समेट दिया है आपने ! ये हुनर तो बस आपके पास है ! बधाई !!
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम!
14 सितंबर 2009 को 11:14 am बजेhttp://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
मुकेश जी यह अच्छी कविता है । लिखते रहें ।
16 सितंबर 2009 को 4:01 pm बजेजिसके लिये जगह नियत नही होती
16 सितंबर 2009 को 7:01 pm बजेफिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ
कटु व्यंग, निहायत सच और महसूस होती मार्मिकता की सचबयानी, ऐसा सुन्दर सामंजस्य कोई मज़ा हुआ तकनीकवेत्ता ही प्रर्दशित कर सकता है..
साहस प्रदर्शन का हार्दिक आभार.
जामे रहो, डटे रहो, पीठ तो कमज़ोर दिखाते हैं, सिद्ध कर दो कि युग बदला, नक्कारखाने में अब आवाज़ गूंजेगी तो सिर्फ तूतियों की..
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
भाई,
16 सितंबर 2009 को 8:03 pm बजेसही कहा है, हम निरापद ही पीसे जाते हैं और जो दोषी हओ वो तो न्याय व्यवस्था का अंग हो जाता है :-
सारा तंत्र,
अपनी असफलताओं में ही
तलाश लेता हैं मुझे इस व्यवस्था में
कहीं से भी
चाहे हाशिये पर हूँ या कबाड़ में या कूड़े में
फिर लानतों का ठीकरा फोड़ा जाता है
शायद, इतने अनुभव ने प्रासंगिक बना दिया है
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ
चलिये कुछ अदेर को ही सही, अप्रासंगिक ही रहा जाये।
जीतेन्द्र चौहान
"मैं,
17 सितंबर 2009 को 6:10 am बजेउस व्यवस्था में
उतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
जिसके लिये जगह नियत नही होती
फिर भी वह मौजूद होता है
अपनी गैरजरूरी मगर जरूरी मौजूदगी के साथ"
इन पंक्तियों ने सब कह दिया...बहुत बहुत बधाई...
मैनें अपने सभी ब्लागों जैसे ‘मेरी ग़ज़ल’,‘मेरे गीत’ और ‘रोमांटिक रचनाएं’ को एक ही ब्लाग "मेरी ग़ज़लें,मेरे गीत/प्रसन्नवदन चतुर्वेदी"में पिरो दिया है।
आप का स्वागत है...
मुकेश भाई ,
18 सितंबर 2009 को 8:41 am बजेआप जो भी लिखते हैं बहुत अच्छा लिखते हैं.
आपका यह निराला अंदाज़ सराहनीय है बधाई!!
उस व्यवस्था में
19 सितंबर 2009 को 9:04 am बजेउतना ही जरूरी हूँ
जितना की घरों में कबाड़खाना
सटीक बिलकुल सही आज हर नागरिक देश की व्यवस्था मे ऐसा ही महसूस कर रहा है।
और मैं प्रसंगवश याद आता हूँ .. सत्य है बहुत अच्छी चोट है आज की व्यवस्था पर बधाई इस रचना के लिये
avayvastha khalati hi hai magar karan bhi iske hum hai .sachchi bate...
19 सितंबर 2009 को 3:03 pm बजेjo sthiti ritayament ke bad ghar me hoti hai vahi sthiti tantra me phle se hi prectis kra di jati hai.
19 सितंबर 2009 को 4:10 pm बजेkitu kabadkhane se hi mulyvan vstuye khoji jati hai.
bhut steek racna .
abhar
यह सुन्दर कविता पढ़वाने के लिए साधुवाद. ब्लॉग लेखन को साहित्य का दर्जा न देने वालों को आपकी कवितायें पढ़नी चाहिए.
20 सितंबर 2009 को 8:23 pm बजेआप सभी का धन्यवाद और प्रेरक उपस्थिती के लिये आभार।
21 सितंबर 2009 को 11:00 am बजेसादर,
मुकेश कुमार तिवारी
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