विषय,
वहीं थे मौजूदा jahan मैं खोज़ रहा था
और परेशान था कि कई दिन हो गये
कुछ लिख नही पाया
चौराहो पर बढती भीड़ के उन्माद में/
तंग सी गलियों में पसरे हुये/
पार्क में बिख़रे हुये रैपर्स की तरह/
या सिनेमा हाल में मूंगफ़ली के छिलकों की तरह
और मैं था कि परेशान विषय नही मिलते हैं
विषय,
थे तो घर में भी मौजूद
स्लीपर्स की टूटी बद्धियों में/
शर्ट की पलटी हुई कॉलर में/
दीवार पर टंगे कैलेण्डर में
जो तनख्वाह के साथ
अक्सर ही कुछ शुरुआती दिनों के बाद बेमानी सा हो जाता है
शायद,
अब मुझे ही ढालनी होगी आदत कि
उठा सकूँ विषय ज़ेब से गिर आये सिक्के की तरह
अपने ही आस-पास से
विषय,
वहां भी थे मौजूद जहाँ मैं गुम हो जाता हूँ
परे ढकेलते हुये उलझने
छलक रहे प्यालों में/
उगले गये धुयें में/
जहाँ अब भी मुटियाती औरतें दम साधे थिरक रहीं है
और मारे गये तानो की चीख़/
दिये गये उलाहनॊ की गूंज/
या तकादों की आहट बदल गई हैं ज़हर में
और सवार हो रही है आदमी पर
मैं,
अब भी परेशान हूँ
की मैं क्यों नही खोज पाता हूँ विषय?
इतने करीब रहकर भी
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मुकेश कुमार तिवारी dinaank : १३-ऑक्टोबर-२००८ / रात्रि : १२:२५ / घर
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