महिला दिवस - विशेष
सोमवार, 8 मार्च 2021
मैंने माँ से पहचाना
एक स्त्री होना
कितना दुसाध्य है
कोई देवता हो जाने से
पहचाना
अपनी बहिनों से
कैसे वो जोड़े रखती हैं
एक घर को दूसरे से
सीख पाया
अपनी बेटियों से ही
कैसे परियाँ खिलखिलाती हैं
घर आँगन में
अनुभव कर रहा हूँ
कैसे एक नन्ही तितली
भर देती है खुशियों के रंग
और लगता है
जीवन शेष है अभी
इनके बाद
जो दुनिया है
या जो भी है मेरी दुनिया में
वो तुम हो
मैं तो केवल टुकड़ा टुकड़ा
विस्तार हूँ तुम सभी का...
@मुकेश कुमार तिवारी / 08-मार्च-2021
महिला दिवस पर हार्दिक अभिनंदन समस्त महिला शक्ति का...
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#महिला दिवस,
वूमंस डे
कविता : ऊँचे कद के लोग
शुक्रवार, 15 मई 2020
हमारे,
समय से बहुत पहले
जब जानवर पूजे जा रहे थे
तभी से यह सीखा था कि
ऊँची कुर्सियों पर जो बैठते हैं
वो लोग बड़े होते हैं
उनके कद इतने ऊँचे होते हैं कि
सीधे तनकर खड़े हो जाएँ तो
शायद, परिस्तान इनके कंधों पर टिक जाए
ये लोग इसलिये ही झुके रहते हैं
इनके कान एक तरफ़ से सीधे सुनते हैं ईश्वर को
इसलिये नही सुन पाते जमीन से उठती कराहें
यह जब गर्दन झुकाकर सुन रहे होते हैं
ईश्वर को
तब गर्दन का दूसरा हिस्सा सुन रहा होता है
जमीन से उठ रही कराहों को
तब इनके कान
एक से लेकर दूसरे के रास्ते
पहुंचा देते हैं कराहों के ईश्वर के पास
और फ़िर खो जाते हैं
परिस्तान के संगीत में अपनी थकी आँखों को मूंदे
क्या बड़े लोग केवल भोंपू की तरह ही होते हैं?
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनाँक : 14-05-2020
लेबल:
ईश्वर,
ऊँची कुर्सियाँ,
बड़े लोग
औरतें
रविवार, 8 मार्च 2020
मेरी औरतें
अब भी अपनी पहचान के लिए
कुछ नही करती
न छपी होंती हैं कहीं
न बहस कर रही होंती हैं किसी फोरम में
न ही थामें होंती हैं बुके
और मुस्कराती एक दिन
वो
आज भी सुबह से निकली है
हाथों को हथियार बना
देह को झोंक लड़ेगी जंग
हार नही मानेगी भूख से
और शाम ढले
लौट आएगी अपने चूजों के लिए
चुग्गा लेकर...
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@मुकेश कुमार तिवारी
08-मार्च-2020
कविता : खेल
शनिवार, 29 फ़रवरी 2020
शहर के बीच
मैदान
जहाँ खेलते थे बच्चे
और उनके धर्म घरों में
खूँटी पर टँगे रहते थे
जबसे एक पत्थर
लाल हुआ तो
दूसरे ने ओढ़ी हरी चादर
तबसे बच्चे
घरों में कैद हैं
धर्म सड़कों पर है
और खूँटियाँ सरों पर
अब बड़े खेल रहे हैं
@मुकेश कुमार तिवारी
29-फेब्रुअरी-2019
कविता : अमराई में बारूद
रविवार, 3 मार्च 2019
हाँ,
मैं भूल गया हूँ मुस्कुराना/
अपने से बातें करना/
कहकहे लगाना/
या तुम्हारे गेसुओं में फिराते उँगलियाँ
भूल जाना जीने की जिल्लत
जब से आम पर बौराई है बारुद
खलिहानों में उग आई हैं खंदकें
मैं,
दफ़्न हो गया हूँ
वहीं, जहाँ दिखा था
आखिरी बार मुस्कुराता
---//---
मुकेश कुमार तिवारी
02-March-2019
@kavitaayan
कविता : बेमानी सन्दर्भ
रविवार, 25 नवंबर 2018
मेरे लिए
फिर नही लौटा
बयारो वाला मौसम
लाख चाहने पर भी
मिट्टी से नही उठी
सौंधी गमक
न ही इन्द्रधनुष खिंचा
वितान पर
नही आई ठिठुरन अबके
मेरी दालान में
धूप कन्नी काटती रही
आँगन से
किस अजीब से
मौसम को जी रहे हैं हम
सन्दर्भ सभी
बेमानी से हो आए हैं
अब आदमी की बात करो तो
जी धक्क सा करता है
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : 25-नवम्बर-2018/समय : 18:55/इन्दौर-गुना यात्रा में
कविता : पड़ाव
शनिवार, 1 जुलाई 2017
करीब साढे नौ सालों के बाद अचानक फ़िर अपने ब्लॉग कि याद आई है.....
उम्र ने बढते हुये
द्दर्ज कर दी थी पेशानियों पे
अपनी मौजुदगी
और सफ़ेदी बढते हुये
कह ही दिया था
कि बहुत हो चुका सब
मन था कि
मानता ही नही
कभी यहाँ कभी वहाँ
अखबारों से शुरु हुआ सिलसिला
थमा तो व्हात्सएप पर
इस बीच पत्रिकायें थै तो
कभी फ़ेसबुक
लेकिन
छाँवभरी गोद लेकर
आज फ़िर याद आया है
ब्लॉग
किसी पड़ाव की तरह
एक थका देने वाली
जीवनयात्रा में
एक सुकून भरा ठहराव लिये....
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मुकेश कुमार तिवारी
दिनांक : 01-जुलाइ-2017 / समय : 04:40 दोपहर / घर
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